पटना हाईकोर्ट (The Patna High Court) ने हाल ही में एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि बच्चों की कस्टडी के मामलों में पारित आदेशों को कठोर और अंतिम नहीं बनाया जा सकता है। अदालत ने कहा कि बच्चे की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उनमें (आदेश में) परिवर्तन किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि कस्टडी के आदेश को हमेशा वादकालीन आदेश (interlocutory orders) माना जाता है।
क्या है पूरा मामला मामला?
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2010 से कपल की शादी हुई थी। फिर विवाहित पति-पत्नी ने 2015 में आपसी सहमति से तलाक मांगा। दोनों में सहमति बनी कि पति अपनी पत्नी को समझौता राशि के रूप में 5 लाख रुपये का भुगतान करेगा। साथ ही उसको उसकी बेटी की कस्टडी सौंप दी जाएगी। रिपोर्ट के मुताबिक, पति ने 2016 में पत्नी को भुगतान कर दिया, जिसके बाद नाबालिग बच्चे को उसकी कस्टडी में सौंप दिया गया।
हालांकि, पत्नी ने तलाक के बाद में कोर्ट में एक बार फिर नई याचिका दायर की। याचिका में उसने अदालत से अपनी बेटी की कस्टडी देने का अनुरोध किया। पति ने इस अनुरोध का विरोध किया। पति ने पत्नी और ससुरालवालों द्वारा कथित उत्पीड़न का हवाला देते हुए भुगतान किए गए पैसे वापस करने की भी मांग की। जवाब में पत्नी ने अपने पति के साथ सुलह करने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन अपनी बेटी की कस्टडी दिए जाने पर जोर दिया।
फैमिली कोर्ट
फैमिली कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने आक्षेपित आदेश में पत्नी को पति को पैसे वापस करने का निर्देश दिया और उसे बच्चे की कस्टडी मां को सौंपने का आदेश दिया। हाई कोर्ट की उपरोक्त टिप्पणी इसी वैवाहिक मामले में पटना के फैमिली कोर्ट के प्रधान जज द्वारा जारी आदेश रद्द करने की याचिका पर आया।
हाई कोर्ट
जस्टिस सुनील दत्ता मिश्रा की सिंगल पीठ ने कहा कि हिंदू मैरिज एक्ट, 1956 की धारा 26 के तहत न्यायालय को कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान या एक्ट के तहत कोई डिक्री पारित होने के बाद बच्चों की कस्टडी, भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में कोई भी आदेश पारित करने या कोई व्यवस्था करने का अधिकार दिया गया है। इस खंड के तहत किए गए आदेश समय-समय पर विविध, निलंबित या निरस्त किए जा सकते हैं। इस धारा का उद्देश्य नाबालिग बच्चे के कल्याण के लिए उचित और उचित प्रावधान करना है। कोर्ट ने कहा कि माता-पिता के बीच कस्टडी की लड़ाई में प्रमुख पीड़ित उनके बच्चे हैं।
अदालत ने आगे कहा कि जबकि माता-पिता आपसी सहमति से तलाक चाहते हैं, वे बच्चे की कस्टडी के मुद्दे पर फैसला कर सकते हैं। हालांकि, अगर यह परस्पर तय नहीं होता है तो बच्चे के कल्याण को ध्यान में रखते हुए अदालत द्वारा फैसला लिया जाएगा। कोर्ट ने कहा कि नाबालिग बच्चा वर्तमान में लगभग 11 साल का है और विवादित आदेश 6 साल पहले 31 जनवरी 2017 को जारी किया गया। यह देखते हुए कि तब से परिस्थितियों में भौतिक रूप से बदलाव आया है। अदालत ने कहा कि बच्चे के साथ बातचीत करना और उसकी पसंद का पता लगाना बेहतर होगा कि वह माता-पिता में से किसके साथ रहना चाहती है।
जस्टिस मिश्रा ने कहा कि बच्चा माता-पिता के बीच विभाजित होने वाली कोई संपत्ति या निजी संपत्ति नहीं है। अदालत ने कहा कि अदालत को माता-पिता (बच्चे का संरक्षक) अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना चाहिए और पक्षों को ऐसा कुछ करने के लिए मजबूर करना चाहिए जो बच्चे के सर्वोत्तम हित में हो। नाबालिग बच्चे की कस्टडी को लेकर अब उन शर्तों पर पक्षकार परस्पर सहमत नहीं हैं।
अदालत ने आगे कहा कि बदली हुई परिस्थितियों में ट्रायल कोर्ट को मामले के सभी पहलुओं पर विचार करने की आवश्यकता है और नाबालिग बच्चे की कस्टडी पर निर्णय लेने के लिए बच्चे का कल्याण प्रमुख विचार है। अदालत ने ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया कि वह दोनों पक्षों द्वारा दायर याचिकाओं पर कानून के अनुसार बच्चे की अंतरिम कस्टडी के मामले सहित नए सिरे से आदेश पारित करे। कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत को भी वैवाहिक मामले को शीघ्रता से निपटाने का निर्देश दिया जाता है। साथ ही कोर्ट ने दोनों पक्षों को भी उक्त वैवाहिक मामले के शीघ्र निपटान में सहयोग करने का निर्देश दिया।
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