गुजरात हाई कोर्ट (Gujarat High Court) ने हाल ही में एक जनहित याचिका (PIL) पर सुनवाई के दौरान भारत में बढ़ रहे चाइल्स कस्टडी के मामलों को केंद्र बिंदु पर रखकर सुनवाई की सिफारिश की। हाई कोर्ट ने निचली अदालतों को शेयर्ड पेरेंटिंग (Shared Parenting) और चाइल्ड कस्टडी (Child Custody) के मामलों का तेजी से निपटाने के निर्देश दिए। हाई कोर्ट ने मामले की सुनवाई के दौरान रजिस्ट्रार जनरल को न्यायिक अधिकारियों के बीच चाइल्ड राइट्स फाउंडेशन द्वारा जारी एक रिपोर्ट प्रसारित करने का निर्देश दिया, ताकि चाइल्ड कस्टडी मामलों का फैसला करते समय संबंधित जज सही निष्कर्ष पर आ सकें। याचिका में उन बच्चों के संबंध में कुछ मुद्दों को उठाया गया था, जो विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, जब उनके माता-पिता अपनी शादी में मतभेदों के कारण या तो एक ही शहर में अलग-अलग रह रहे हैं या अलग-अलग शहरों में रह रहे हैं।
क्या है पूरा मामला?
कार्यवाहक चीफ जस्टिस एजे देसाई और जस्टिस बीरेन वैष्णव की खंडपीठ ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए उपरोक्त निर्देश जारी किए। Lawbeat.in के मुताबिक, वकील राजेश कुमार मिश्रा द्वारा गुजरात हाई कोर्ट में PIL दायर की गई थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि आपसी मतभेदों के कारण अलग रह रहे माता-पिता के कारण उनके बच्चों को पढ़ाई में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। याचिकाकर्ता ने कहा कि कभी-कभी दूरी इंटरसिटी होती है, जबकि कभी-कभी यह इंट्रासिटी होती है। याचिकाकर्ता ने इस मुद्दे को उठाया था कि बच्चों को ऐसी स्थितियों में दैनिक जीवन के कई संघर्षों का सामना करना पड़ता है।
लाइव लॉ के मुताबिक, याचिकाकर्ता एक प्रैक्टिसिंग वकील है। उन्होंने अदालत के समक्ष कहा था कि ऐसे बच्चे, जिनके माता-पिता अलग रह रहे हैं, उनके माता-पिता में से किसी एक द्वारा शुरू की गई अदालती कार्यवाही में बार-बार बुलाए जाने पर उनकी नियमित पढ़ाई में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। याचिकाकर्ता द्वारा यह तर्क दिया गया था कि बच्चे की अंतरिम कस्टडी के लिए पेरेंट्स और वार्ड अधिनियम सहित विभिन्न अधिनियमों के तहत, पीड़ित वह बच्चा है जिसे विभिन्न प्रकार के मनोवैज्ञानिक मुद्दों से गुजरना पड़ता है। याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की कि चाइल्ड कस्टडी के आवेदनों, अस्थायी या स्थायी पर निर्णय लेने के अधिकार क्षेत्र वाले जजों को निर्देश दिया जाए कि वे ऐसे आवेदनों पर जल्द से जल्द फैसला करें। संभवत: दलील पूरी होने की तारीख से 90 दिनों के भीतर हो जाए।
माता-पिता को दी जाए ‘बराबर दिन’ कस्टडी
आगे यह गया था कि माता-पिता को बच्चे की कस्टडी के बराबर दिन दिए जाने चाहिए, ताकि दोनों माता-पिता एक विशेष तरीके से बच्चे की परवरिश कर सकें। याचिकाकर्ता ने कहा कि कई हाईकोर्ट ने जजों को निर्देशित किया है जो चाइल्ड कस्टडी मामलों से निपट रहे हैं ऐसे मुद्दों का फैसला करते समय NGO की रिपोर्ट पर विचार करें। दूसरी ओर, एडवोकेट जनरल कमल त्रिवेदी, एजीपी उत्कर्ष शर्मा और गुजरात राज्य की वकील अंकिता राजपूत ने तर्क दिया कि एनजीओ द्वारा जारी दिशा-निर्देश प्रकृति में बाध्यकारी नहीं हैं और संबंधित अदालत को माननीय सुप्रीम कोर्ट और देश के अन्य हाई कोर्ट के साथ-साथ इस अदालत द्वारा दिए गए कानून और निर्णयों के अनुसार मामले का फैसला करना है।
हाई कोर्ट
हाई कोर्ट ने दिए गए तर्कों और विवादों पर गहराई से विचार किया। उन्होंने देश के अन्य उच्च न्यायालयों द्वारा जारी किए गए समान दिशानिर्देश जारी करने का निर्णय लिया। अदालत के रजिस्ट्रार जनरल को गुजरात में न्यायिक अधिकारियों के बीच रिपोर्ट प्रसारित करने का निर्देश दिया गया है। हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि चाइल्ड राइट्स फ़ाउंडेशन की रिपोर्ट में उल्लिखित दिशा-निर्देश प्रकृति में अनिवार्य नहीं हैं और सभी जजों को कानून के अनुसार प्रत्येक मामले को अपनी योग्यता के आधार पर तय करना है।
अदालत ने कहा कि रिपोर्ट कई पहलुओं से संबंधित है जैसे अंतरिम मुलाक़ात कार्यक्रम, मुलाक़ात दिशानिर्देश, स्थानीय दिशानिर्देश (200 किमी के भीतर रहने वाले पक्षकार), गैर स्थानीय दिशानिर्देश (200 किमी के भीतर रहने वाले पक्षकार), बच्चों की संयुक्त कस्टडी और माता-पिता और साथ ही बच्चे पर इसका दोनों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव।
कोर्ट ने कहा कि हमने कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा पारित आदेश पंजाब एंड हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, मुंबई और केरल आदि के उच्च न्यायालयों द्वारा जारी कुछ संचारों को भी देखा है। इन सभी हाईकोर्ट ने उपरोक्त संदर्भित दिशानिर्देशों को केवल के लिए परिचालित किया है। हालांकि अखिरी में कोर्ट ने कहा कि दिशानिर्देश प्रकृति में अनिवार्य नहीं हैं और जजों को अपने गुण और कानूनों के आधार पर मामलों का फैसला करने के लिए कहा गया है।
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