केरल हाई कोर्ट (Kerala High Court) ने हाल ही में एक मामले की सुनवाई के दौरान अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि कानून लिव-इन रिलेशनशिप को विवाह के रूप में मान्यता नहीं देता है। इसलिए इस तरह के रिश्ते को तलाक के उद्देश्य से भी मान्यता नहीं दी जा सकती। अदालत ने कहा कि जब दो पक्ष केवल एक समझौते के आधार पर एक साथ रहने का फैसला करते हैं, न कि किसी व्यक्तिगत कानून या स्पेशल मैरिज एक्ट के अनुसार, तब वे इसे शादी होने या तलाक लेने का दावा नहीं कर सकते।
क्या है पूरा मामला?
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, हाई कोर्ट लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने वाले एक कपल द्वारा दायर अपील पर विचार कर रहा था, जिसमें स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत उन्हें तलाक देने से इनकार करने वाले फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती दी गई थी। अपीलकर्ता कपल (एक हिंदू और दूसरा एक ईसाई) ने एक साथ रहने के लिए फरवरी, 2006 में एक रजिस्टर्ड समझौता किया था। कपल लंबे समय तक पति-पत्नी के रूप में रहे और उनका एक बच्चा भी था।
फैमिली कोर्ट
हालांकि, अब वे अलग होना चाहते थे और रिश्ता खत्म करना चाहते थे। इसलिए कपल ने स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत आपसी तलाक के लिए एक संयुक्त याचिका के साथ फैमिली कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। फैमिली कोर्ट ने इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उन्हें तलाक देने से इनकार कर दिया कि वे स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत विवाहित नहीं थे। इसके बाद अपीलकर्ताओं ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अपीलकर्ताओं के वकील ने कहा कि जब दोनों पक्षों ने घोषणा के द्वारा अपने रिश्ते को शादी के रूप में स्वीकार कर लिया, तो यह अदालत के लिए नहीं है कि वे कानूनी रूप से विवाहित हैं या नहीं, यह तय करना है।
हाई कोर्ट
हाई कोर्ट ने कहा कि कानून केवल पक्षकारों को तलाक देने की अनुमति देता है, यदि वे व्यक्तिगत कानून या धर्मनिरपेक्ष कानून के अनुसार विवाह के मान्यता प्राप्त रूप में विवाहित हैं। अदालत ने कहा कि अब तक अनुबंध के माध्यम से पक्षों के बीच किए गए विवाह को तलाक के उद्देश्य से कानून के तहत कोई मान्यता नहीं है। यह देखते हुए कि फैमिली कोर्ट के पास तलाक के इस तरह के दावे पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र नहीं है। हाई कोर्ट ने याचिका को बनाए रखने योग्य नहीं मानते हुए इसे वापस करने का निर्देश दिया। अदालत ने माना कि कानून लिव इन रिलेशनशिप को विवाह के रूप में मान्यता नहीं देता है, इसलिए अलगाव के साधन के रूप में तलाक की मांग नहीं की जा सकती।
जस्टिस ए मुहम्मद मुस्ताक और सोफी थॉमस की खंडपीठ ने यह देखा लिव-इन-रिलेशनशिप को अभी तक कानूनी रूप से मान्यता नहीं मिली है और कानून किसी रिश्ते को तभी मान्यता देता है जब विवाह पर्सनल लॉ के अनुसार या विशेष विवाह अधिनियम जैसे धर्मनिरपेक्ष कानून के अनुसार संपन्न हुआ हो। कोर्ट ने कहा कि एक सामाजिक संस्था के रूप में विवाह, जैसा कि कानून में पुष्टि और मान्यता प्राप्त है, बड़े समाज में पालन किए जाने वाले सामाजिक और नैतिक आदर्शों को दर्शाता है।
अदालत ने आगे कहा कि कानून ने अभी तक लिव-इन रिलेशनशिप को शादी के रूप में मान्यता नहीं दी है। कानून केवल तभी मान्यता देता है, जब विवाह को व्यक्तिगत कानून के अनुसार या स्पेशल मैरिज एक्ट जैसे धर्मनिरपेक्ष कानून के अनुसार संपन्न किया जाता है। यदि पार्टियां एक समझौते के आधार पर एक साथ रहने का फैसला करती हैं, तो यह स्वयं उन्हें विवाह के रूप में दावा करने और उस पर तलाक का दावा करने के योग्य नहीं होगा।
इसके साथ ही कोर्ट ने कहा कि तलाक केवल एक कानूनी विवाह को अलग करने का एक साधन है और लिव-इन रिलेशनशिप को अन्य उद्देश्यों के लिए मान्यता दी जा सकती है, यह तलाक के लिए मान्यता प्राप्त नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि फैमिली कोर्ट के पास इस तरह के दावे पर विचार करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है, क्योंकि यह केवल कानून द्वारा मान्यता प्राप्त विवाहों से निपट सकता है। इसके साथ ही अदालत ने फैमिली कोर्ट को याचिका को बनाए रखने योग्य नहीं मानते हुए याचिका वापस करने का निर्देश दिया।
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