यह फैसला देते हुए कि बच्चे की उपेक्षा करना और उसके इलाज की जिम्मेदारी लेने से इनकार करना धारा 498-A या भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 506 के तहत आपराधिक धमकी के दायरे में नहीं आता है, आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट (Andhra Pradesh High Court) ने हाल ही में एक फैसले को रद्द कर दिया। मामले में एक महिला ने अपने पति एवं ससुराल वालों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कराया था।
क्या है पूरा मामला?
लाइव लॉ के मुताबिक, नवंबर 2011 में शिकायतकर्ता पत्नी और याचिकाकर्ता पति की शादी हुई थी। बाद में पत्नी ने आरोप लगाया कि उसके पति और ससुराल वालों ने उसे प्रताड़ित किया। उसका आरोप था कि उसके माता-पिता से पैसे ऐंठने के मकसद से उसे प्रताड़ित किया गया। सितंबर 2015 में पत्नी को एक बेटा पैदा हुआ। उसके बाद उसे कथित रूप से उसके ससुराल भेज दिया गया। उस दौरान न तो उसके पति और न ही उसके ससुराल वालों में से किसी ने भी उसकी या बेटे की देखभाल करने की जहमत नहीं उठाई।
पत्नी के आरोपों के मुताबिक उसके बेटे के अंडकोष में कुछ दिक्कत थी और उसका ऑपरेशन करना पड़ा। इस दौरान याचिकाकर्ता पति या ससुराल वालों ने किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं की। ऐसी कथित परिस्थितियों में उसके द्वारा पति और ससुराल वालों के खिलाफ IPC की धारा 498-A, 506, 354 r/w 34 के तहत अपराध के लिए शिकायत दर्ज की गई थी। जांच के आधार पर, अतिरिक्त जूनियर सिविल जज नरसरावपेट ने IPC की धारा 498-A, 509, 506, 354 r/w 34 के तहत अपराधों के लिए मामले का संज्ञान लिया था।
पति का तर्क
इसके बाद याचिकाकर्ताओं (पति और ससुराल वालों) ने मामले को रद्द करने के लिए आपराधिक याचिका के माध्यम से हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। याचिकाकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि इस शिकायत पर विचार नहीं किया जा सकता था, क्योंकि यह CrPC की धारा 468 के तहत निर्धारित समय सीमा से परे दायर की गई थी। उन्होंने आगे कहा कि संज्ञान का आदेश, मजिस्ट्रेट की संतुष्टि प्रकट करने वाले किन्हीं कारणों से रहित होने के अलावा, मजिस्ट्रेट द्वारा स्पष्ट रूप से विचार न करने के कारण भी त्रुटिपूर्ण है।
वकील ने इस बात पर प्रकाश डाला कि एक बार IPC की धारा 354 को चार्जशीट से बाहर कर दिया जाता है, तो अन्य सभी अपराधों में तीन साल से अधिक की सजा नहीं होती है और इन प्रावधानों के तहत शिकायत दर्ज करने की सीमा अपराध की तारीख से तीन साल होगी। उन्होंने तर्क दिया कि इस मामले में, सभी आरोप नवंबर, 2015 से पहले के अपराधों से संबंधित हैं, जबकि शिकायत मई 2019 में दर्ज की गई थी, जो स्पष्ट रूप से तीन साल की अवधि से परे है।
पत्नी का तर्क
वहीं, शिकायतकर्ता-पत्नी के वकील ने तर्क दिया कि नवंबर 2015 में अपने माता-पिता के घर लौटने के बाद भी उत्पीड़न जारी रहा। उसने दावा किया कि उसे और उसके बच्चे दोनों को उपेक्षित किया गया और उनके खराब स्वास्थ्य के बावजूद अपने माता-पिता के साथ रहने के लिए मजबूर किया गया।
इस उत्पीड़न के उदाहरण के रूप में वकील ने आरोप लगाया कि याचिकाकर्ताओं में से किसी ने भी उसके बच्चे के मुंडन समारोह में भाग नहीं लिया। इसके अलावा, उसने कहा कि इसके बाद भी उत्पीड़न जारी रहा क्योंकि याचिकाकर्ता पति या ससुराल वालों द्वारा बच्चे का कोई इलाज नहीं कराया गया था और 2018 में जब उसकी सर्जरी की गई थी तो उस समय कोई भी मौके पर नहीं आया था।
हाई कोर्ट
दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस आर. रघुनंदन राव ने फैसला दिया कि ट्रायल कोर्ट ने IPC की धारा 498-A, 354, 506 r/w 34 के तहत संज्ञान लिया था। हालांकि, अदालत ने कहा कि धारा 354 के तहत संज्ञान क्यों लिया गया था। इसका कोई रिकॉर्डेड कारण नहीं था। जबकि जांच अधिकारी ने उस प्रावधान को हटा दिया था, और न ही कोई स्पष्टीकरण था कि धारा 509 के तहत संज्ञान क्यों नहीं लिया गया था जब जांच अधिकारी इसे चार्जशीट में शामिल किया था। अदालत ने कहा कि मजिस्ट्रेट ने संज्ञान लेने के लिए उनकी संतुष्टि को निर्धारित करते हुए एक संक्षिप्त नोट भी दर्ज नहीं किया था।
पीठ ने कहा कि विवेक के स्पष्ट उपयोग को देखते हुए इस न्यायालय को संज्ञान के उक्त आदेश को रद्द करना होगा। हालांकि, संज्ञान के आदेश को अलग करने से केवल मामले को मजिस्ट्रेट को रिमांड पर भेजा जाएगा और इस मामले में उठाए गए मुद्दे याचिकाकर्ता अनुत्तरित रहेंगे। इसके अलावा, अदालत ने स्पष्ट किया कि वास्तविक शिकायतकर्ता द्वारा शिकायत उसके माता-पिता के घर लौटने के तीन साल से अधिक समय बाद दायर की गई थी, जो निर्धारित समय सीमा से परे है। इसके परिणामस्वरूप IPC की धारा 498-A, 509 या 506 के तहत परिवाद को समयबद्ध किया जाएगा।
अदालत ने तब इस सवाल पर विचार किया कि क्या पत्नी द्वारा कथित आगे की घटनाओं को उत्पीड़न के ऐसे कृत्यों के लिए माना जाएगा, जिसके परिणामस्वरूप परिसीमा की अवधि बढ़ाई जाएगी। कोर्ट ने कहा कि बाद की अवधि के संबंधों में आरोप उपेक्षा और वास्तविक शिकायतकर्ता या उसके बच्चे से मिलने या मिलने से इनकार करने के आरोप हैं। यह देखना होगा कि क्या यह व्यवहार चार्जशीट में निहित किसी भी प्रावधान को आकर्षित करेगा।
IPC की धारा 506 और 509 का अवलोकन करने के बाद अदालत ने कहा, “याचिकाकर्ता के खिलाफ लगाए गए आरोप, वास्तविक शिकायतकर्ता के बच्चे के इलाज की जिम्मेदारी लेने से इनकार करने और उपेक्षा करने के लिए इनमें से किसी भी प्रावधान के तहत नहीं आएंगे।” कोर्ट ने तब विचार किया कि क्या उपेक्षा की ऐसी कार्रवाई IPC की धारा 498-A के दायरे में आएगी। अदालत ने कहा कि यह उपेक्षा की कार्रवाई IPC की धारा 498-A के दायरे में नहीं आएगी।
अदालत ने कहा कि ऐसी परिस्थितियों में यह मानना होगा कि वास्तविक शिकायतकर्ता द्वारा दायर की गई शिकायत, Cr.P.C की धारा 468 के तहत निर्धारित अवधि से परे है। इसने आगे कमलेश कालरा बनाम शिल्पिका कालरा और अन्य के सुप्रीम कोर्ट के मामले का उल्लेख किया और कहा कि यह माना गया है कि कपल के अलग होने के तीन साल से अधिक समय बाद दर्ज की गई शिकायत को परिसीमन से रोकना होगा। इसके साथ ही आपराधिक याचिका की अनुमति दे दी गई और प्रथम अतिरिक्त जूनियर सिविल जज नरसरावपेट की फाइल पर मामला खारिज कर दिया गया।
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