बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ (Aurangabad bench of the Bombay High Court) ने शुक्रवार को एक अहम फैसले में कहा कि एक महिला (जो तलाक से पहले अपना वैवाहिक घर छोड़ देती है) बाद में घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 (DV एक्ट) के तहत “निवास के अधिकार (Right to Residence)” की मांग नहीं कर सकती है, भले ही उसके तलाक की डिक्री के खिलाफ अपील लंबित है।
क्या है पूरा मामला?
लीगल वेबसाइट ‘बार एंड बेंच’ की रिपोर्ट के मुताबिक, अदालत ससुराल वालों द्वारा दायर एक पुनरीक्षण आवेदन पर सुनवाई कर रही थी जिसमें एक मजिस्ट्रेट के आदेश को चुनौती दी गई थी जिसमें तलाकशुदा पत्नी को साझा घर में रहने की इजाजत दी गई थी, जो कि वैवाहिक घर था। घर उसके अब अलग हो चुके ससुर के नाम पर था।
ससुराल वालों ने बताया कि एक फैमिली कोर्ट ने 10 जुलाई, 2018 को पारित एक विस्तृत आदेश द्वारा उनके बेटे और उसकी अलग हुई पत्नी के विवाह को भंग कर दिया था। उन्होंने आगे बताया कि उक्त आदेश को चुनौती देने वाली पत्नी द्वारा दायर एक अपील पहले से ही हाई कोर्ट में लंबित है।
उन्होंने तर्क दिया कि अब जब विवाह भंग हो गया है, तो पत्नी ‘निवास के अधिकार’ की मांग नहीं कर सकती है, खासकर क्योंकि तलाक के आदेश के आदेश के महीनों पहले उसने अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया था। वहीं, तलाकशुदा पत्नी के वकील ने तर्क दिया कि तलाक की डिक्री को उसके द्वारा दायर अपील के माध्यम से इस आधार पर चुनौती दी गई है कि यह धोखाधड़ी से प्राप्त की गई थी, और अपील अभी भी विचाराधीन है।
हाई कोर्ट
सिंगल जज जस्टिस संदीप कुमार मोरे ने निचली अदालत द्वारा महिला को उसके ससुराल में निवास का अधिकार देने और घर में बिजली, बाथरूम, शौचालय आदि की सुविधा प्रदान करने के आदेश को रद्द कर दिया। जज ने कहा कि डीवी एक्ट की धारा 17 निवास के अधिकार की अनुमति देती है, लेकिन यह तभी है जब महिला तलाक से पहले साझा घर में रहना जारी रखे।
कोर्ट ने कहा कि इस तरह, साक्षी (तलाकशुदा पत्नी) पहले के निवास आदेश का सहारा नहीं ले सकती है, जब उसके पति के साथ उसका विवाह उचित क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय द्वारा पारित तलाक की डिक्री द्वारा भंग कर दिया गया हो और विशेष रूप से तब जब उसने पहले ही अपने साझा घर को चार साल छोड़ दिया हो। अदालत ने कहा कि ऐसी परिस्थितियों में वह बेदखली को रोकने की राहत की भी हकदार नहीं है, क्योंकि वह साझा घर के कब्जे में नहीं है।
पीठ ने आगे कहा कि पत्नी ने तलाक से काफी पहले ही वैवाहिक घर छोड़ दिया था। यह भी नोट किया गया कि पत्नी यह दर्शाने के लिए रिकॉर्ड पर कोई भी सामग्री पेश करने में विफल रही कि उसे पति या ससुराल वालों द्वारा वैवाहिक घर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था। हाई कोर्ट ने कहा कि मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश को चुनौती देने के लिए केवल अपील का लंबित होना वर्तमान आवेदकों के आड़े नहीं आएगा।
कोर्ट ने कहा कि इसलिए, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि वह एक तलाकशुदा पत्नी होने के नाते, बदली हुई परिस्थितियों के आलोक में निवास आदेश या पहले के निवास आदेश के कार्यान्वयन का दावा करने की हकदार नहीं है। मेरी राय है कि मजिस्ट्रेट ने निश्चित रूप से आवेदकों को साझा घर में उसे एक कमरा उपलब्ध कराने का निर्देश देने में गलती की है। इन टिप्पणियों के साथ, पीठ ने ससुराल वालों द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार कर लिया।
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