दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi High Court) ने 9 नवंबर, 2021 को अपने एक अहम आदेश में कहा कि एक पत्नी अपने पति और उसके माता-पिता के खिलाफ आपराधिक आचरण के गंभीर आरोप लगा रही थी, लेकिन इन आरोपों को वह ट्रायल कोर्ट में साबित करने में असमर्थ रही। अदालत ने पत्नी के इस प्रकार अप्रमाणित आरोपों को “क्रूरता” करार दिया। जस्टिस विपिन सांघी (Justice Vipin Sanghi) और जस्टिस जसमीत सिंह (Justice Jasmeet Singh) की डिवीजन बेंच ने इस तरह फैमिली कोर्ट द्वारा पति को दी गई तलाक की डिक्री बरकरार रखी और फैमिली कोर्ट एक्ट की धारा 19 के तहत पत्नी की अपील को खारिज कर दिया।
क्या है पूरा केस?
दंपत्ति का विवाह हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार दिसंबर 2007 में हुआ था। शादी के बाद नवंबर 2009 में दंपति से एक बेटे का जन्म हुआ। वह बच्चा मां (अपीलकर्ता) की हिरासत में है। बाद में दोनों के बीच विवाद शुरू हो गया जिसके कारण अपीलकर्ता ने सीएडब्ल्यू सेल (CAW Cell) में शिकायत दर्ज की, जिसके परिणामस्वरूप 2013 में सोनीपत के महिला पुलिस स्टेशन में IPC की धारा 498ए, धारा 406, धारा 323, धारा 34 के तहत FIR दर्ज की गई।
महिला ने अपनी शिकायत में अपने पति और उसके माता-पिता का नाम लिया था। जिसके बाद उक्त मामले में प्रतिवादी पति और उसके माता-पिता सभी को हिरासत में ले लिया गया था। इस मामले में जहां प्रतिवादी तीन दिनों तक हिरासत में रहा, वहीं उसके माता-पिता एक दिन के लिए हिरासत में रहे। हालांकि आखिरकार, प्रतिवादी सहित सभी अभियुक्तों को अगस्त 2015 में बरी कर दिया गया। बरी करने के खिलाफ एक अपील अपीलकर्ता द्वारा दायर की गई थी, जिसे जनवरी 2016 में खारिज कर दिया गया।
पत्नी के कारण पति को करना पड़ा मानसिक क्रूरता का सामना
फैमिली कोर्ट ने माना कि पत्नी के अप्रमाणित आरोपों के कारण पति को मानसिक क्रूरता का सामना करना पड़ा, क्योंकि उसे और उसके माता-पिता को उसकी पत्नी की शिकायत पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A से दर्ज एक मामले में बरी कर दिया गया था। बरी करने के खिलाफ दायर एक अपील भी खारिज कर दी गई। हालांकि अपीलकर्ता-पत्नी का मामला यह है कि जब उसके पति और ससुराल वालों ने जमानत के लिए आवेदन किया तो उसका विरोध नहीं किया गया। उसने हिंदू विवाह की धारा 9 के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए भी एक याचिका दायर की।
हाई कोर्ट ने क्या कहा?
दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि हमारे विचार में केवल इसलिए कि अपीलकर्ता ने प्रतिवादी और उसके माता-पिता द्वारा पेश की गई जमानत याचिका का विरोध नहीं किया, अपीलकर्ता के गैर-जिम्मेदाराना आचरण को खत्म करने के लिए पर्याप्त नहीं है। केवल तथ्य यह है कि उसने प्रतिवादी और उसके माता-पिता के खिलाफ आपराधिक आचरण के गंभीर आरोप लगाए हैं, जिसे वह अदालत के समक्ष स्थापित नहीं कर सकी, प्रतिवादी के खिलाफ क्रूरता के कृत्यों का गठन करने के लिए पर्याप्त है।
हाई कोर्ट ने अपने फैसले में आगे कहा कि इन परिस्थितियों में प्रतिवादी से यह आशा कैसे की जा सकती है कि वह अपीलकर्ता को अपने जीवन में आने की अनुमति देगा? एक विश्वास- जो वैवाहिक बंधन की नींव है, अपीलकर्ता के उक्त आचरण से पूरी तरह से ध्वस्त हो गया। एक आदमी के लिए अपने माता-पिता को हिरासत में देखना और उन्हें एक दिन के लिए जेल में देखना एक अनकही पीड़ा होगी। बेशक, अपीलकर्ता ने प्रतिवादी और उसके माता-पिता के खिलाफ उसके आरोपों को भी अपील में रखा। क्या उसे नहीं पता था कि उनकी सजा क्या होगी? उन्हें कारावास की सजा सुनाई गई है? इसलिए, जमानत अर्जी का विरोध न करने का उनका आचरण मायने नहीं रखता।
अपील में कोई योग्यता नहीं पाते हुए हाई कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। हालांकि, अपीलकर्ता पत्नी की दलील पर कि वह स्थायी गुजारा भत्ता की हकदार होगी और पति अपने नाबालिग बच्चे के भरण पोषण के लिए बाध्य है, जो पत्नी के साथ ही है, अदालत ने पत्नी और बच्चे के भरण-पोषण के अनुदान के लिए स्थायी गुजारा भत्ता देने के पहलू पर पति को नोटिस जारी किया।
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