दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi High Court) ने अपने एक आदेश में कहा है कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 (Domestic Violence Act, 2005) के तहत निवास का अधिकार, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) की धारा 9 के तहत उत्पन्न होने वाले किसी भी अधिकार से विशिष्ट और अलग है, जो वैवाहिक अधिकारों की बहाली से संबंधित है। जस्टिस चंद्रधारी सिंह (Justice Chandra Dhari Singh) इस मामले में एक कपल द्वारा दायर एक याचिका पर विचार कर रहे थे, जिसमें एडिशनल सेशन जज के आदेश को चुनौती दी गई थी। एडिशनल सेशन जज ने उनके बेटे की पत्नी/प्रतिवादी नंबर 1 के पक्ष में दिए गए निवास के अधिकार के आदेश की पुष्टि की थी।
क्या है पूरा मामला?
प्रतिवादी संख्या 1 बहू और याचिकाकर्ताओं के बेटे आलोक गुप्ता के बीच विवाह 30 जनवरी 1990 को हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार शादी हुई थी। लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, शुरुआत में प्रतिवादी पत्नी और उसके ससुराल वालों के बीच संबंध सौहार्दपूर्ण थे। हालांकि, समय के साथ यह बिगड़ना शुरू हो गए। प्रतिवादी ने सितंबर, 2011 में अपना ससुराल छोड़ दिया। जिसके बाद दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ 60 से अधिक मामले दायर कर दिए। इन में दीवानी और आपराधिक दोनों तरह के मामले शामिल हैं। इनमें से एक मामला प्रतिवादी-पत्नी द्वारा घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत दायर किया था और कार्यवाही के दौरान प्रतिवादी ने संबंधित संपत्ति में निवास के अधिकार का दावा किया था।
मेट्रोपॉलिटन कोर्ट, दिल्ली
2013 में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने माना था कि प्रतिवादी पत्नी उक्त संपत्ति की पहली मंजिल में निवास के अधिकार की हकदार है। इस आदेश को अपीलीय न्यायालय ने बरकरार रखते हुए कहा था कि प्रतिवादी नंबर-1 अपनी शादी के बाद से उक्त परिसर में रह रही थी और उस घर में उसके पति की 50 प्रतिशत हिस्सेदारी है, जिसने उसे वहां रहने का अधिकार दिया था।
वैवाहिक अधिकारों की बहाली
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि उनके बेटे ने कई बार प्रतिवादी के साथ अपने संबंध ठीक करने का प्रयास किया और प्रतिवादी द्वारा लगातार इनकार करने के बाद उसने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए याचिका दायर की। प्रतिवादी ने इस याचिका का भी विरोध किया और इसे खारिज करने की मांग की, जो अपने पति के साथ रहने की उसकी अनिच्छा को साफ दर्शाता है। इस प्रकार, यह तर्क दिया गया कि चूंकि प्रतिवादी पत्नी अपने पति के साथ नहीं रहना चाहती थी और इसलिए उसने उसके साथ रहने से इनकार कर दिया, ऐसे में वह अपने वैवाहिक घर में निवास के अधिकार का दावा नहीं कर सकती है।
दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के बीच तनावपूर्ण संबंधों का अस्तित्व इस तथ्य से अच्छी तरह से स्थापित होता है कि दोनों पक्षों के बीच लगभग 60 से अधिक आपराधिक और दीवानी मामले लंबित हैं। हाई कोर्ट ने आगे कहा कि प्रतिवादी ने डीवी एक्ट के तहत मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट की कोर्ट में आवेदन दायर किया, जिसमें उसने निवास के अधिकार की मांग करते हुए एक अंतरिम आवेदन भी दायर किया। मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने हालांकि डीवी एक्ट के तहत लगाए गए आरोपों पर कोई फैसला नहीं सुनाया, लेकिन प्रतिवादी के अपने ससुराल में रहने के अधिकार की मांग को सही पाया।
निचली अदालत के आदेश में दखल देने से इनकार करते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि डीवी अधिनियम के तहत निवास का अधिकार,हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के तहत उत्पन्न होने वाले किसी भी अधिकार से विशिष्ट और अलग है और इस तरह, इस संबंध में अपीलीय न्यायालय द्वारा किया गया अवलोकन भी एकदम सही है। हाई कोर्ट ने माना कि अपीलीय न्यायालय ने ठीक ही इस बात की सराहना की है कि प्रतिवादी पत्नी को अपने पति की सह-स्वामित्व वाली संपत्ति में रहने का अधिकार है और इस बात की वास्तविक आशंका थी कि याचिकाकर्ता उसे घर से निकाल देंगे।
वहीं, याचिकाकर्ताओं के खिलाफ मामले दायर करने की संभावना, उसके ससुराल में रहने के अधिकार को प्रभावित नहीं कर सकती है। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि 5 दिसंबर, 2013 के आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई आधार नहीं बनता है। हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि कि अदालत के समक्ष दिए गए तर्कों, तथ्यों और परिस्थितियों, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के निष्कर्षों के साथ-साथ अपीलीय न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए, इस न्यायालय को 1 नवंबर, 2013(जिसके तहत निवास का अधिकार प्रतिवादी के पक्ष में दिया गया था) और 5 दिसंबर, 2013(जिसके तहत 1 नवंबर, 2013 के आदेश को बरकरार रखा गया था) को दिए गए आदेशों में कोई त्रुटि नहीं मिली है। इसके साथ ही याचिका खारिज कर दी गई।
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