केरल हाईकोर्ट (Kerala High Court) ने पिछले महीने जनवरी के आखिरी सप्ताह में एक मामले की सुनवाई के दौरान दोहराया कि एक बालिग अविवाहित बेटी अपने पिता पर CrPC की धारा 125 (1) के तहत केवल इस आधार पर भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती है कि उसके पास अपने भरण-पोषण के साधन नहीं हैं। लाइव लॉ वेबसाइड की रिपोर्ट के मुताबिक, कोर्ट ने कहा कि एक अविवाहित बेटी किसी भी शारीरिक, मानसिक असामान्यता या चोट के कारण खुद को बनाए रखने में असमर्थ है तो CrPC की धारा 125 (1) के तहत भरण-पोषण का दावा करने की हकदार है। हालांकि, इस संबंध में दलील और सबूत अनिवार्य हैं।
क्या है पूरा मामला?
याचिकाकर्ता की पत्नी और बेटी को गुजारा भत्ता देने के फैमिली कोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर एक रिवीजन याचिका पर सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने उपरोक्त टिप्पणी की है। कोर्ट के समक्ष मुख्य सवालों में से एक यह था कि क्या एक अविवाहित बेटी बालिग होने के बाद भी CrPC की धारा 125(1) के तहत भरण-पोषण का दावा कर सकती है?
याचिकाकर्ता के वकील ने अपना तर्क रखते हुए कहा कि यह साबित करने के लिए कोई सबूत प्रस्तुत नहीं किया गया है कि बेटी किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या चोट से पीड़ित है या वह अपना भरण-पोषण नहीं कर सकती है। वकील ने अपनी दलीलों को साबित करने के लिए अबिलाशा बनाम प्रकाश एवं अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए के फैसले पर भरोसा किया।
हाई कोर्ट का फैसला
लाइव लॉ वेबसाइट के मुताबिक, जस्टिस ए बदरुद्दीन ने यह स्पष्ट किया कि एक अविवाहित हिंदू बेटी (विवाह होने तक) हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20(3) का सहारा लेकर अपने पिता पर भरण-पोषण का दावा कर सकती है। बशर्ते कि वह दलील दे और साबित करे कि वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है। हालांकि, इसके लिए विशेष रूप से अधिनियम,1956 की धारा 20 के तहत आवेदन करना होगा।
कोर्ट ने कहा कि CrPC की धारा 125 (1) के आधार पर एक बालिग अविवाहित बेटी सामान्य परिस्थितियों में भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती है अर्थात केवल इस आधार पर कि उसके पास अपने भरण-पोषण के साधन नहीं हैं। साथ ही, कोर्ट ने कहा कि भले ही अविवाहित बेटी, जो वयस्क हो गई है, भरण-पोषण की हकदार है, जहां ऐसी अविवाहित बेटी किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या चोट के कारण खुद को बनाए रखने में असमर्थ है, जिसके लिए इस संबंध में दलील और सबूत देना अनिवार्य हैं।
अदालत ने कहा कि अन्यथा, कानूनी प्रस्ताव यह है कि एक अविवाहित हिंदू बेटी (विवाह होने तक) हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20 (3) का सहारा लेकर अपने पिता पर भरण-पोषण का दावा कर सकती है, बशर्ते कि वह दलील दे और साबित करे कि वह स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ है। इस अधिकार को लागू करवाने के लिए उसका आवेदन/वाद अधिनियम, 1956 की धारा 20 के अधीन होना चाहिए।
साक्ष्यों के मूल्यांकन के बाद अदालत ने कहा कि ऐसा कोई सबूत नहीं दिया गया जिससे यह दिखाया जा सके कि बेटी (दूसरी प्रतिवादी) में कोई शारीरिक या मानसिक असामान्यता है, या उसे कोई चोट लगी है जिससे वह अपना भरण-पोषण नहीं कर सकती है। इसलिए, दूसरी प्रतिवादी को भरण-पोषण का अनुदान,उसके बालिग होने की तारीख से गलत है और इस तरह अदालत ने कहा कि विवादित आदेश को उस सीमा तक रद्द किया जाता है। दूसरी प्रतिवादी के भरण-पोषण की पात्रता को उसके वयस्क होने की तिथि तक सीमित किया जाता है। हालांकि, कोर्ट ने याचिकाकर्ता की पत्नी (प्रथम प्रतिवादी) को दिए गए भरण-पोषण को बरकरार रखा।
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