दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi High Court) ने अपने एक हालिया फैसले में कहा कि जो व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के साथ सहमति से शारीरिक संबंध रखता है, उसे दूसरे व्यक्ति की जन्मतिथि की न्यायिक जांच करने की आवश्यकता नहीं है। लाइव लॉ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस जसमीत सिंह ने बलात्कार के एक मामले में आरोपी व्यक्ति को जमानत देते हुए यह अहम टिप्पणी की।
क्या है पूरा मामला?
शिकायतकर्ता महिला ने आरोप लगाया था कि दोस्त बनने के बाद सितंबर 2019 में याचिकाकर्ता शख्स ने उसे एक होटल में बुलाया और उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित किए और उसका वीडियो भी बनाया, जिससे उसे ब्लैकमेल किया गया। शिकायतकर्ता ने आगे आरोप लगाया कि याचिकाकर्ता ने वीडियो जारी करने की धमकी के तहत उसे अलग-अलग लोगों के साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिए मजबूर किया।
इसमें यह भी आरोप लगाया गया कि अगस्त, 2021 के आसपास शिकायतकर्ता महिला याचिकाकर्ता के घर से भागने में सफल रही, जहां उसे कथित तौर पर कैद किया गया था, जिसके बाद वह एक वकील से मिली, जिसने शख्स के खिलाफ उसे FIR दर्ज करने में मदद की।
याचिकाकर्ता का तर्क
हालांकि, दूसरी तरफ याचिकाकर्ता का कहना था कि घटना की तारीख कथित तौर पर सितंबर, 2019 थी, जबकि एफआईआर तीन साल बाद 2022 में दर्ज की गई थी। इसमें यह भी दावा किया गया कि अभियोक्ता की जन्म की 4 अलग-अलग डेट हैं। याचिकाकर्ता के अनुसार, आधार कार्ड में पीड़िता की जन्मतिथि 1 जनवरी 1998 है, जबकि पैन कार्ड के अनुसार 25 फरवरी 2004 है।
याचिकाकर्ता द्वारा यह भी प्रस्तुत किया गया कि राज्य द्वारा किए गए सत्यापन के अनुसार, अभियोक्ता की जन्म तिथि 1 जून 2005 है। इस पृष्ठभूमि में, यह तर्क दिया गया कि अभियोक्ता केवल उसके खिलाफ पॉक्सो एक्ट के प्रावधान के आह्वान करने के लिए अपनी सुविधा के अनुसार अपनी जन्मतिथि दिखा रही है।
लाइव लॉ के अनुसार, इसमें आगे यह भी आरोप लगाया गया कि अभियोक्ता याचिकाकर्ता से पैसे की उगाही कर रही थी और जब उसने उसकी अवैध मांगों का पालन करने से इनकार कर दिया, तो 3 साल की देरी के बाद FIR दर्ज की गई।
इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि पुलिस की जांच सही नहीं थी और याचिकाकर्ता द्वारा पैसे जमा करने वाले वित्तीय लेनदेन की जांच नहीं की गई। यह भी कहा गया कि शिकायतकर्ता के आधार का सत्यापन किया गया था और अभियोक्ता के कई इंस्टाग्राम अकाउंट की कोई जांच नहीं हुई थी।
दिल्ली हाई कोर्ट
हाई कोर्ट ने कहा कि अभियोक्ता के स्वयं के दिखावे के अनुसार और जैसा कि FIR में कहा गया है, उसका 2019 से आवेदक के साथ संबंध रहा है। यदि आवेदक ने अभियोक्ता को ब्लैकमेल किया था, तो उसे पहले ही पुलिस के पास जाना चाहिए था। कोर्ट ने आगे कहा कि वीडियो के बहाने ब्लैकमेल करने के आरोप ने अदालत के विश्वास को प्रेरित नहीं किया, क्योंकि अभियोक्ता ने FIR में यह नहीं कहा था कि यह याचिकाकर्ता और उसके बीच जबरदस्ती शारीरिक संबंध था।
अदालत ने आगे कहा कि वह व्यक्ति, जो किसी अन्य व्यक्ति के साथ सहमति से शारीरिक संबंध रखता है, उसे दूसरे व्यक्ति की जन्म तिथि की न्यायिक जांच करने की आवश्यकता नहीं है। उसे शारीरिक संबंध के लिए आधार कार्ड, पैन कार्ड देखने और अपने स्कूल से जन्म तिथि सत्यापित करने की आवश्यकता नहीं है। अदालत ने कहा कि तथ्य यह है कि एक आधार कार्ड है और यह तथ्य कि यह जन्म तिथि 01.01.1998 को दर्शाता है, आवेदक के लिए यह राय बनाने के लिए पर्याप्त है कि वह एक नाबालिग के साथ शारीरिक संबंध में लिप्त नहीं था।
यह देखते हुए कि अभियोक्ता के पक्ष में बड़ी मात्रा में धन का ट्रांसफर किया गया था, अदालत ने यह भी कहा कि राज्य द्वारा दायर की गई स्टेटस रिपोर्ट से पता चलता है कि यह उक्त पहलू की जांच करने में विफल रही है। कोर्ट ने कहा कि इस कोर्ट ने जमानत आवेदन में (2813/2020) ‘कपिल गुप्ता बनाम राज्य’ शीर्षक से देखा है कि ऐसे मामले हैं जहां निर्दोष व्यक्तियों को फंसाया जा रहा है और उनसे भारी मात्रा में धन निकाला जा रहा है।
इसके साथ ही कोर्ट ने पुलिस कमिश्नर को व्यक्तिगत रूप से मामले को देखने और हनी ट्रैपिंग के ऐसे मामलों की जांच करने का निर्देश दिया था। कोर्ट ने कहा कि मेरा प्रथम दृष्टया यह विचार है कि यह भी ऐसी घटना का मामला लगता है। अदालत ने इस प्रकार पुलिस कमिश्नर को अभियोक्ता के संबंध में विस्तृत जांच करने का निर्देश दिया, यदि उसके द्वारा शहर में किसी अन्य व्यक्ति के खिलाफ ऐसी ही कोई FIR दर्ज की गई थी। उपरोक्त टिप्पणियों के साथ, दिल्ली हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता को जमानत दे दी।
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