दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi High Court) ने हाल ही में एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि जहां माता-पिता के बीच कटु संबंध हैं, वहां सबसे बुरा शिकार बच्चा होता है। हाईकोर्ट ने कहा कि नाबालिग की उम्र और माता-पिता से अलग होने की अवधि की आसपास की परिस्थितियां उसकी ‘इंटेलिजेंट परेफरेंस’ पर विचार करते समय प्रासंगिक हैं। हाई कोर्ट ने 13 साल के नाबालिग बच्चे से मिलने के अधिकार की मांग करने वाली पिता की याचिका खारिज करने वाले फैमिली कोर्ट का आदेश रद्द करते हुए यह टिप्पणियां कीं। उन्होंने मांग की कि नाबालिग बच्चे को उनसे मिलने के लिए बच्चों के कमरे में लाया जाए।
क्या है पूरा मामला?
लाइव लॉ के मुताबिक, कपल की शादी दिसंबर 2004 में हुई थी। उन्होंने एक बेटे को गोद लिया था। 2021 में कपल अलग हो गएं और तब से बच्चे की कस्टडी विशेष रूप से मां के पास है। इसके बाद पिता ने संरक्षक और वार्ड अधिनियम, 1890 की धारा 9 के तहत याचिका दायर की, जिसमें नाबालिग बेटे की कस्टडी की मांग की गई।
पिछले साल अगस्त में फैमिली कोर्ट द्वारा पिता को हर रविवार को बच्चे को मां के घर से लेने और दो घंटे के बाद वापस छोड़ने की अनुमति दी गई थी। 22 मई को पारित किए गए आदेश के अनुसार, फैमिली कोर्ट ने पाया कि बच्चे में पिता के साथ बैठक का निर्णय लेने के लिए पर्याप्त परिपक्वता है। साथ ही यह पाया कि बैठक के लिए नाबालिग को बच्चों के कमरे में पेश करने का निर्देश देने का कोई आधार नहीं है।
हाई कोर्ट
हाई कोर्ट ने विवादित आदेश रद्द करते हुए कहा कि बच्चा लगभग 11 साल तक दोनों माता-पिता की संयुक्त कस्टडी में था, जो एक साथ रह रहे थे। जस्टिस सुरेश कुमार कैत और जस्टिस नीना बंसल कृष्णा की खंडपीठ ने कहा कि गार्जियन नियुक्त करते समय अदालत मामले में नाबालिग की प्राथमिकता पर विचार कर सकती है। साथ ही यह कि वह “इंटेलिजेंट परेफरेंस” बनाने के लिए पर्याप्त उम्र का है।
खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि प्रावधान “निर्देशिका भाषा में छिपा हुआ है” और अदालत को हमेशा इस बात से निर्देशित नहीं किया जा सकता कि बच्चा अपनी प्राथमिकता क्या बताता है। कोर्ट ने कहा, “यह सामान्य ज्ञान है कि जहां पति और पत्नी के बीच संबंधों में कटुता व्याप्त हो जाती है, वहां सबसे बुरा शिकार बच्चा होता है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कटु संबंधों से प्रभावित होता है। उसे अलग हुए माता-पिता के खिलाफ भी सिखाया जाता है। ऐसे बच्चे की बुद्धिमान प्राथमिकता पर विचार करते समय न केवल बच्चे की उम्र महत्वपूर्ण होती है, बल्कि अलगाव की अवधि की आसपास की परिस्थितियां और अपीलकर्ता/पिता से मिलने में अनिच्छा के बताए गए कारण भी प्रासंगिक होते हैं।”
खंडपीठ ने कहा कि इन दो वर्षों में यह स्पष्ट है कि पेरेंट के बीच मतभेदों के कारण बच्चे पर भी असर पड़ा है। इसके अलावा, अदालत ने कहा कि यह बच्चे के हित और कल्याण में नहीं है कि अगर वह केवल माता-पिता के बीच मतभेदों के कारण अपने पिता के प्यार और स्नेह के साथ-साथ मार्गदर्शन से भी वंचित हो जाता है। पीठ ने आगे कहा, “यह तब और भी अधिक है जब लगभग दो साल पहले तक पक्षकार और बच्चे एक साथ थे। पिता कोई अजनबी नहीं बल्कि ग्यारह साल से साथ रह रहे बच्चे को अच्छी तरह जानता है। दो साल का समय अंतराल बच्चे के पूर्ण अलगाव के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता, यहां तक कि वह पिता से मिलने से भी पूरी तरह विमुख हो जाए। पिता और बच्चे के बीच खोए/कम हुए स्नेह को बनाने और बहाल करने में मां की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण है।”
कोर्ट ने कहा कि यह बच्चे के हित और कल्याण में होगा यदि अलग हुए पिता और बेटे के बीच सौहार्द, विश्वास और स्नेह को बहाल करने में मदद के लिए शुरू में बैठकें अदालत में आयोजित करने का निर्देश दिया जाए। इसके साथ ही खंडपीठ ने मां को यह सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास करने का भी निर्देश दिया कि बच्चा अपने पिता के साथ अपने तनावपूर्ण रिश्ते को बहाल करने में सक्षम हो। अदालत ने पिता को फैमिली कोर्ट के समक्ष उचित आवेदन दायर करके उक्त व्यवस्था में संशोधन की मांग करने की स्वतंत्रता दी, जब उसके और नाबालिग के बीच पर्याप्त संबंध स्थापित हो जाए।
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