दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi High Court) ने हाल ही में अपने एक आदेश में पति और पत्नी के बीच की शादी को 16 साल बाद यह कहते हुए रद्द कर दिया कि पति के साथ शादी से पहले पत्नी की ओर से अपने मानसिक विकार (Mental Disorder) का खुलासा करने में विफलता उसके साथ हुई धोखाधड़ी है। जस्टिस विपिन सांघी (Justice Vipin Sanghi) और जस्टिस जसमीत सिंह (Justice Jasmeet Singh) पति द्वारा दायर फैमिली कोर्ट के एक आदेश को चुनौती देने वाले अपील पर सुनवाई कर रहे थे, जिसमें उनकी हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 12 के तहत दायर उनकी याचिका को खारिज कर दिया गया था।
क्या है पूरा मामला?
दरअसल, अपीलकर्ता पति और प्रतिवादी पत्नी के बीच दिसंबर 2005 में शादी हुआ था। पति के अनुसार, उसकी शादी एक सुनियोजित धोखाधड़ी का परिणाम था जो पत्नी और उसके परिवार के सदस्यों द्वारा की गई थी क्योंकि उन्होंने उसके मानसिक स्वास्थ्य के बारे में खुलासा नहीं किया था। पति के मुताबिक, यह भी कहा गया था कि शादी से पहले और पति के साथ रहते हुए पत्नी एक्यूट सिजोफ्रेनिया (Acute Schizophrenia) से पीड़ित थी। उन्होंने कहा कि शादी के बाद ससुराल में और साथ ही उनके हनीमून के दौरान भी पत्नी ने बहुत ही असामान्य तरीके से व्यवहार किया।
पति ने कई डॉक्टरों से कराया पत्नी का इलाज
जनवरी, 2006 में पति प्रतिवादी पत्नी को एक डॉक्टर के पास ले गया, जिसने उसकी जांच के बाद उसे जीबी पंत अस्पताल रेफर कर दिया, जहां एक अन्य डॉक्टर ने प्रतिवादी की जांच की और कुछ दवाएं लिखकर दे दी। हालांकि इस दवा से पत्नी के व्यवहार में जब कोई बदलाव नहीं हुआ तो अपीलकर्ता उसे दिल्ली के एक न्यूरो सर्जन के पास ले गया जहां प्रतिवादी की फिर से जांच की गई और वहां एक डॉक्टर ने उसे दवाएं दीं।
इसके बाद फरवरी 2006 में अपीलकर्ता प्रतिवादी को दिल्ली के हिंदू राव अस्पताल ले गया, जहां पत्नी उस डॉक्टर से मिलने के बाद चिल्लाते हुए बोली, “इसी डॉक्टर ने मुझे पहले भी दवाई दी है।” यहां इलाज के बाद भी प्रतिवादी के मानसिक स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं पाया, जिसके बाद पति ने पत्नी को लेकर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) ले गया, जहां एक न्यूरो डॉक्टर ने उसकी जांच की और उसे कुछ दवाएं दीं। डॉक्टर के अनुसार, प्रतिवादी एक्यूट सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित थी।
इसके बाद अपीलकर्ता ने प्रतिवादी के माता-पिता से पूछताछ की और प्रतिवादी की मानसिक स्थिति के बारे में बताया। यह स्थिति तब थी जब प्रतिवादी के पिता उसे अपने साथ उसके पैतृक घर (शादी के 9 सप्ताह बाद) फरवरी 2006 में ले गए और तब से वह अपने माता-पिता के साथ ही उनके घर में रह रही है। पति ने यह भी कहा कि अपीलकर्ता और प्रतिवादी के बीच विवाह संपन्न नहीं हुआ था।
पत्नी का तर्क
दूसरी तरफ प्रतिवादी पत्नी ने कोर्ट में अपना लिखित बयान दाखिल किया जिसमें उसने इस बात से इनकार किया कि अपीलकर्ता और उसके बीच विवाह संपन्न नहीं हुआ था। प्रतिवादी ने कहा कि उसे कभी कोई मानसिक या शारीरिक बीमारी नहीं हुई है, लेकिन कॉलेज के दिनों में उसे सिरदर्द हुआ था, जिसके कारण उसकी पढ़ाई बंद कर दी गई थी, और उक्त तथ्य को स्पष्ट रूप से अपीलकर्ता, मध्यस्थ और अन्य सम्बंधित सभी व्यक्तियों को बताया गया था।
महिला ने आगे कहा कि अपीलकर्ता, उसके परिवार के सदस्य, दोस्त और रिश्तेदार शादी से पहले उससे कई बार मिले थे, और कई टेलीफोन कॉल आए थे। इसलिए, शादी से पहले या शादी के बाद किसी भी मानसिक बीमारी से पीड़ित होने का कोई सवाल ही नहीं है। अक्टूबर 2009 में, प्रतिवादी ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत एक याचिका भी दायर की थी, जिसमें अपीलकर्ता के खिलाफ वैवाहिक अधिकारों की बहाली की मांग की गई थी, जिसे फैमिली कोर्ट ने तलाक की याचिका के साथ जोड़ा था।
हाई कोर्ट ने क्या कहा?
शुरुआत में दिल्ली हाई कोर्ट का विचार था कि जज मेडिकल पेशेवर या एक्सपर्ट नहीं हैं। तर्कों और पेश किए गए चिकित्सा साहित्य के आधार पर सीमित रूप से समझ पाते हैं। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अदालतों को इस तरह के मुद्दों का फैसला करने में सक्षम होने के लिए, क्षेत्र में विश्वसनीय व्यक्तियों से एक्सपर्ट राय की आवश्यकता होती है। पक्षकारों को या तो समर्थन देने या उस राय को चुनौती देने का अवसर देने का अधिकार है जो एक्सपर्ट संबंधित व्यक्ति और अन्य सभी प्रासंगिक सामग्रियों की जांच के बाद दे सकते हैं। हालांकि, शुरुआत में हमारे लिए जो मायने रखता है, वह यह है कि प्रतिवादी को अदालत द्वारा नियुक्त किए जाने वाले एक स्वतंत्र मेडिकल बोर्ड द्वारा उसकी स्थिति के मूल्यांकन के अधीन होने से इनकार करना है।
पीठ का यह भी विचार था कि पत्नी के किसी भी मेडिकल जांच से सीधे इनकार करने से अदालत को सच्चाई पर पहुंचने से रोक दिया गया। यह देखते हुए कि यह सच था कि मामले में मेडिकल राय निर्णायक नहीं थी, अदालत ने कहा कि डॉक्टरों के सबूत और मेडिकल दस्तावेजों से पता चलता है कि पत्नी सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित थी। फैमिली कोर्ट के निष्कर्षों से असहमति जताते हुए कोर्ट का विचार था कि पति के आवेदन को खारिज करने में गलती हुई और उसका दृष्टिकोण गलत था।
“शादी केवल सुखद यादों और अच्छे समय से नहीं बनती”
कोर्ट ने कहा कि शादी केवल सुखद यादों और अच्छे समय से नहीं बनती है, शादी में दो लोगों को कई चुनौतियां झेलनी पड़ती हैं और एक साथ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ऐसे साथी के साथ रहना आसान नहीं है, जिसे मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हैं, इस तरह की समस्याओं का सामना करने वाले व्यक्ति के लिए अपनी अलग चुनौतियां होती हैं, और इससे भी ज्यादा उसके जीवनसाथी के लिए।
अदालत ने आगे कहा कि शादी में समस्याओं और भागीदारों के बीच संचार की समझ होनी चाहिए- खासकर जब शादी में दो भागीदारों में से एक ऐसी चुनौतियों का सामना कर रहा हो। कोर्ट ने पत्नी द्वारा शादी से पहले अपने मानसिक स्वास्थ्य विकार का खुलासा नहीं करने पर कहा कि यह अपीलकर्ता के साथ एक धोखाधड़ी थी। कोर्ट ने पाया कि पत्नी ने कभी भी पति को अपने मानसिक विकार के बारे में नहीं बताया और इसके बजाय इसे सिरदर्द के रूप में वर्णित किया।
कोर्ट ने कहा कि सिरदर्द अपने आप में कोई बीमारी नहीं है और यह केवल एक बीमारी का लक्षण है। प्रतिवादी ने यह नहीं बताया कि उसके इतने गंभीर और बार-बार होने वाले सिरदर्द का कारण क्या था, जिसने उसे अपनी पढ़ाई पूरी करने से कमजोर कर दिया। अदालत ने यह भी कहा कि मेडिकल बोर्ड के विशेषज्ञों द्वारा पत्नी के मेडिकल टेस्ट से इनकार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि वह मेडिकल बोर्ड का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी, क्योंकि इससे उसकी मानसिक स्थिति का पता चल सकता था और यह आरोप साबित हो जाता कि वह एक्यूट सिजोफ्रेनिया से पीड़ित थी।
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