बॉम्बे हाई कोर्ट (Bombay High Court) ने हाल ही में यह कहते हुए एक नाबालिग की गार्डियनशिप उसके जैविक पैरेंट्स (Biological Parents) को दी कि माता-पिता की याचिका को केवल इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता है क्योंकि मुस्लिम कानून इंगित करता है कि एक ‘नाजायज संतान’ के रूप में, उसे विरासत या वंश का कोई अधिकार नहीं है।
क्या है पूरा मामला?
लाइव लॉ के अनुसार, बच्चे की मां ने 2005 में प्रतिवादी से शादी की थी। बच्चे का जन्म इस शादी के निर्वाह के दौरान हुआ था। मां और प्रतिवादी का 2015 में तलाक हो गया। याचिकाकर्ताओं को व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था, क्योंकि बच्चे के जन्म प्रमाण पत्र में प्रतिवादी को पिता के रूप में दर्ज किया गया था। इसलिए उन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
याचिकाकर्ताओं का मामला था कि वे बच्चे के साथ रह रहे हैं और DNA रिपोर्ट से पता चलता है कि वे उसके जैविक माता-पिता हैं। इसलिए, उन्होंने दावा किया कि वे नाबालिग बच्चे के संरक्षक के रूप में नियुक्त किए जाने के योग्य हैं। वहीं, प्रतिवादी ने एक हलफनामे में विशेष रूप से कहा कि उसे याचिकाकर्ताओं को नाबालिग बच्चे के प्राकृतिक और कानूनी अभिभावक घोषित किए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है।
मुस्लिम कानून के अनुसार, ‘नसाब (nasab)’ या वंश वैध विवाह से स्थापित होता है न कि अवैध संभोग से…। इसलिए, एक नाजायज बच्चे या ‘वलाद-उज़-ज़ीना (walad-uz-zina)’ का कोई नसाब या माता-पिता नहीं होता है और न ही वह उपाधि प्राप्त कर सकता है।
हाई कोर्ट
जस्टिस मनीष पितले ने नाबालिग बच्चे के हित को सर्वोपरि मानते हुए बच्चे के जैविक माता-पिता द्वारा दायर गार्डियनशिप याचिका पर अनुकूल विचार किया। कोर्ट ने कहा कि इस अदालत की राय है कि चूंकि वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता जैविक माता-पिता हैं… यह न्याय का उपहास होगा यदि वर्तमान याचिका में की गई प्रार्थनाओं पर विचार नहीं किया जाता है, केवल इसलिए कि नाबालिग पर लागू व्यक्तिगत कानून बच्चा इंगित करता है कि एक ‘नाजायज संतान’ होने के नाते, उसके पास विरासत या वंश के लिए कोई अधिकार नहीं हो सकता है।
हाई कोर्ट ने अपने फैसले में आगे कहा कि इस अदालत की राय है कि बच्चे की कोई गलती नहीं है, यह बड़े पैमाने पर दुनिया के लिए नाजायज है, जो अपने आप में बच्चे का उत्पीड़न है। अदालत ने अतहर हुसैन बनाम सैयद सिराज अहमद और अन्य पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अभिभावक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 नाबालिग बच्चे के हित को सर्वोपरि मानते हुए व्यक्तिगत कानून पर प्रबल हो सकता है।
अदालत ने कहा कि यदि वर्तमान मामले में मुस्लिम कानून को सख्ती से लागू किया जाता है, तो नाबालिग बच्चे की कोई विरासत नहीं होगी और वह अपने मूल अधिकारों से केवल इसलिए वंचित हो जाएगी, क्योंकि वह अपनी मां की शादी के दौरान याचिकाकर्ताओं और प्रतिवादी के बीच के रिश्ते का उत्पाद है।
कोर्ट ने कहा कि प्रतिवादी ने जानबूझकर बच्चे की कस्टडी उसकी मां को दे दी। अदालत ने कहा कि यदि वर्तमान याचिका पर विचार नहीं किया जाता है, तो बच्चा अपने जैविक माता-पिता द्वारा देखभाल और रखरखाव के अधिकार से वंचित हो जाएगा, जो उसकी जरूरतों का ख्याल रखने के लिए तैयार हैं।
अदालत ने कहा कि ऐसी स्थिति जहां नाबालिग बच्चे को बिना उसकी गलती के छोड़ दिया जाता है, उसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। इसलिए, इस न्यायालय का मानना है कि नाबालिग बच्चे के हित को सर्वोपरि मानते हुए, वर्तमान याचिका अनुकूल रूप से विचार किया जाना चाहिए।
इसलिए, अदालत ने याचिकाकर्ताओं को सुरक्षा और पारिश्रमिक के बिना नाबालिग बच्चे के प्राकृतिक और कानूनी अभिभावक के रूप में नियुक्त करने की अनुमति दी। साथ ही अदालत ने याचिकाकर्ताओं को स्कूल या किसी अन्य प्राधिकरण में अभिभावक के रूप में नाबालिग बच्चे का प्रतिनिधित्व करने की भी अनुमति दी।
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