झारखंड हाई कोर्ट (Jharkhand High Court) ने अपनी विधवा भाभी से शादी करने का झांसा देकर उसके साथ बलात्कार करने के आरोपी एक व्यक्ति को राहत देते हुए कहा कि पीड़िता कानूनी उम्र की एक विवाहित महिला थी। वह अपने देवर के साथ अपने संबंधों के परिणामों से भलीभांति परिचित थी। इसके साथ ही हाई कोर्ट आरोपी को राहत देते हुए विधवा भाभी से शादी का झूठा वादा कर रेप करने के मामलों को रद्द कर दिया।
क्या है पूरा मामला?
लाइव लाइव के मुताबिक, हाई कोर्ट याचिकाकर्ता की ओर से ट्रायल कोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका की सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। पीड़िता ने दावा किया था कि उसके पति की मौत के बाद आरोपी (उसके दिवंगत पति के छोटे भाई ने) उसकी जिम्मेदारी ली थी। समय के साथ, वह कथित तौर पर शादी का वादा करते हुए उसके साथ रोमांटिक रिश्ते में बंध गया और अंततः छह साल तक यौन दुराचार में लिप्त रहा। इस अवधि के दौरान पीड़िता दो बार गर्भवती हुई। उसने दोनों बार गर्भपात करा ली। पीड़िता ने कहा कि उसे शादी का झूठा वादा कर धोखा दिया गया। आरोपी शादी का वादा कर बाद में मुकर गया। FIR में उल्लिखित आरोपों को ध्यान में रखते हुए अदालत को यह निर्धारित करना था कि क्या आरोपी पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375 के तहत कोई अपराध बनता है या नहीं।
हाई कोर्ट
जस्टिस सुभाष चंद ने कहा कि प्रस्तुत साक्ष्य यह साबित नहीं करते कि पीड़ित की सहमति धोखाधड़ी के माध्यम से प्राप्त की गई थी। अदालत ने कहा कि बेशक, पीड़िता बालिग थी और एक विवाहित महिला थी। वह अपने देवर के साथ यौन संबंध स्थापित करने के संबंध में बहुत जागरूक थी। भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 90 के मद्देनजर सहमति को गलत धारणा के तहत प्राप्त नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वह याचिकाकर्ता के साथ छह साल से लगातार यौन संबंध स्थापित कर रही थी।
अदालत ने कहा कि एक बालिग और विवाहित महिला होने के नाते, वह अच्छी तरह से जानती थी कि बिना शादी किए यौन संबंध स्थापित करने के क्या परिणाम हो सकते हैं। जस्टिस चंद ने कहा कि FIR में लगाए गए आरोपों से यह संकेत नहीं मिलता है कि पीड़िता के साथ धोखाधड़ी करके सहमति प्राप्त की गई थी।
कोर्ट ने कहा कि जहां तक याचिकाकर्ता के विद्वान वकील द्वारा दी गई दलीलों का सवाल है कि याचिकाकर्ता के डिस्चार्ज आवेदन को खारिज करने के बाद आरोप तय किया गया था, मुकदमा शुरू किया गया था और चार गवाहों से पूछताछ की गई थी। यदि आरोप तय कर दिया गया है और एकमात्र आधार पर मुकदमा शुरू हो गया है, तो यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि यह आपराधिक पुनरीक्षण निष्फल हो गया है।
अदालत ने कहा कि इसलिए, FIR में लगाए गए आरोपों और जांच अधिकारी द्वारा एकत्र किए गए सबूतों के मद्देनजर, अदालत की निश्चित राय थी कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के तहत अपराध बनाने के लिए पर्याप्त आधार नहीं था, जो कि था आरोपी के खिलाफ IPC की धारा 376 के तहत दंडनीय है। इसके साथ ही कोर्ट ने पिछले आदेश को रद्द कर दिया और आपराधिक पुनरीक्षण की अनुमति दी, जिससे याचिकाकर्ता को भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत लगाए गए आरोपों से प्रभावी ढंग से मुक्त कर दिया गया।
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