कलकत्ता हाईकोर्ट (Calcutta High Court) ने हाल ही में एक महिला द्वारा अपने पति और उसके रिश्तेदारों के खिलाफ IPC की धारा 498A के तहत शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया। महिला द्वारा शिकायत में आरोप लगाया गया था कि उसे शारीरिक और मानसिक यातना दी गई और वैवाहिक घर से बाहर निकाल दिया गया। कोर्ट ने इस आधार पर महिला की शिकायत के तहत आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया कि महिला द्वारा पहले उन्हीं आरोपियों के खिलाफ लगभग उन्हीं आरोपों के आधार पर शुरू की गई कार्यवाही में सभी आरोपी बरी हो गए थे और उनके द्वारा कोई अपील नहीं की गई थी।
क्या है पूरा मामला?
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, महिला ने 14 फरवरी 2016 को शिकायत दर्ज कराई थी कि शादी के बाद उसकी सास ने उसे शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना देना शुरू कर दिया। उसके बाद वह अपने मायके आ गई। आरोप है कि उसके ससुराल वालों ने उसे अपने होटल में काम करने के लिए मजबूर किया। इस तरह उसे शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना दी गई। महिला का आगे आरोप है कि जनवरी 2011 में उसके पति ने उसका शारीरिक शोषण किया और ससुराल से निकाल दिया।
ट्रायल कोर्ट
शिकायत के आधार पर वर्तमान याचिकाकर्ताओं के खिलाफ IPC की धारा 498A (पति या पति के रिश्तेदार द्वारा महिला के साथ क्रूरता करना) के तहत मामला दर्ज किया गया। हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने 17 अगस्त, 2019 के आदेश के तहत सभी आरोपियों को बरी कर दिया। बरी होने के महीनों बाद दहेज की मांग पर शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना के स्वयं के आरोप के आधार पर याचिकाकर्ताओं के खिलाफ IPC की धारा 498A के तहत फिर से FIR दर्ज की गई। याचिकाकर्ताओं ने IPC की धारा 498A के तहत आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग करते हुए CrPC की धारा 482 के तहत एक याचिका दायर किया।
दोनों पक्षों का तर्क
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वकील ने कहा कि FIR दर्ज करना और बिना जांच के कार्यवाही शुरू करना ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य में निर्धारित कानून का उल्लंघन है। वकील ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता-पति ने पहले ही घोषणा के लिए एक मुकदमा दायर कर दिया है कि वह कानूनी रूप से विवाहित पत्नी नहीं है, जो उचित मंच के समक्ष विचाराधीन है।
हाई कोर्ट का आदेश
अदालत ने पाया कि सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों यानी हाई कोर्ट ने कई मामलों में IPC की धारा 498A के दुरुपयोग और वैवाहिक विवादों में पति और पति के रिश्तेदारों को फंसाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त की है। जस्टिस अजय कुमार मुखर्जी की सिंगल जज पीठ ने देखा कि पहले की कार्यवाही के साथ-साथ वर्तमान कार्यवाही की FIR के अवलोकन से यह प्रतीत होता है कि आरोप लगभग एक ही है जो याचिकाकर्ताओं द्वारा विरोधी पक्ष नंबर पर प्रताड़ित करने के आरोप का दोहराव है।
अदालत ने देखा कि वर्तमान FIR में यानी दूसरी FIR में आरोप है कि उसी शिकायतकर्ता को वास्तविक रूप से शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना का शिकार बनाया गया और उसे साल 2011 में बाहर कर दिया गया था। पहली FIR जो 2016 में दर्ज की गई थी और उसमें आरोपी बरी हो गए। अदालत ने कहा कि यह काफी अजीब बात है कि दूसरी FIR पहली FIR से बरी होने के चार महीने बाद बिना किसी नए मामले या कार्रवाई के नए कारण के दर्ज की गई है।
अदालत ने कहा कि दोनों FIR की कंटेंट के अवलोकन से पता चलता है कि आरोप दोनों में एक समान हैं, जो प्रकृति में सर्वव्यापी है। वास्तव में बार-बार सामान्य सर्वव्यापी आरोप के माध्यम से इस तरह के निहितार्थ के परिणामस्वरूप कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग हुआ। यह दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है कि विरोधी पक्ष ने पूर्व की कार्यवाही में पारित दोषमुक्ति के आदेश के विरुद्ध कोई अपील की है। कोर्ट ने कहा कि कमजोर अभियोजन पक्ष के पीछे छिपी हुई वस्तु स्पष्ट रूप से याचिकाकर्ताओं को परेशान करना है।
हाई कोर्ट ने आगे कहा कि एक उचित शिकायत दर्ज करने के लिए उपरोक्त धारा का उल्लेख और उन धाराओं की भाषा पर्याप्त नहीं है जो ऐसे सभी मामलों में अभियुक्तों में से प्रत्येक द्वारा और उस अपराध को करने में उनमें से प्रत्येक द्वारा निभाई गई भूमिका का डिटेल्स अदालत के ध्यान में लाया जाना आवश्यक है। अदालत ने कहा कि जब वर्तमान शिकायत को उस दृष्टिकोण से लिया जाता है तो शिकायत दुखद रूप से अस्पष्ट प्रतीत होती है क्योंकि यह नहीं दिखाती है कि किस याचिकाकर्ता ने क्या अपराध किया है और अपराध के कथित कमीशन में याचिकाकर्ताओं द्वारा निभाई गई सटीक भूमिका क्या है।
इस प्रकार अदालत ने याचिकाकर्ताओं के खिलाफ IPC की धारा 498A के तहत आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि उपर्युक्त के मद्देनजर वर्तमान कार्यवाही को जारी रखने की अनुमति देना अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा और न्याय के उद्देश्य के लिए यह आवश्यक है कि कार्यवाही को रद्द किया जाए, क्योंकि अदालती कार्यवाही को प्रताड़ना के एक हथियार के रूप में प्रयोग करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
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