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Home हिंदी कानून क्या कहता है

10-15 साल की लड़कियां बायोलॉजिकल चेंज से गुजरती हैं, पिता उसकी देखभाल नहीं कर सकता: छत्तीसगढ़ HC ने मां को सौंपी कस्टडी  

Team VFMI by Team VFMI
January 2, 2023
in कानून क्या कहता है, हिंदी
0
voiceformenindia.com

Girls Aged 10-15 Yrs Undergo Biological Changes, Can't Be Taken Care Of By Father: Chhattisgarh High Court Grants Custody To Mother (Representation Image)

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छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट (Chhattisgarh High Court) ने हाल ही में एक प्राकृतिक अभिभावक (Natural Guardian) होने के बावजूद एक नाबालिग हिंदू लड़की की कस्टडी उसके पिता को सौंपने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने कहा कि 10 से 15 साल की आयु की एक लड़की कुछ बायोलॉजिकल चेंज से गुजरती है, जिनकी देखभाल पिता द्वारा नहीं की जा सकती है। जस्टिस गौतम भादुड़ी और जस्टिस राधाकिशन अग्रवाल की खंडपीठ ने कहा कि बच्चे के सर्वोपरि हित को देखते हुए यह उचित होगा कि बच्चे की कस्टडी मां के पास रहे।

क्या है पूरा मामला?

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, अपीलकर्ता-पति और प्रतिवादी की शादी 2009 में हुई थी। शादी के एक साल बाद एक लड़की का जन्म हुआ। बच्ची के जन्म के बाद से, उनके संबंध खराब होने शुरू हो गए, जिसके कारण उन्हें अलग रहना पड़ा।

पत्नी का तर्क

पत्नी द्वारा मेंटेनेंस के लिए याचिका दायर करने के बाद पति ने बेटी की कस्टडी के लिए फैमिली कोर्ट का रुख किया। पति ने तर्क दिया कि उसकी पत्नी ने उस पर झूठे आरोप लगाए थे जिससे समाज में उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची। यह भी दलील दी गई कि उसकी पत्नी का ”आपराधिक स्वभाव” है, इसलिए एक प्राकृतिक अभिभावक होने के नाते, बच्ची की कस्टडी उसको दी जानी चाहिए।

पत्नी का तर्क

हालांकि, पत्नी ने पति के आरोपों को खारिज करते हुए तर्क दिया कि पति ने उसके गहने ले लिए और दहेज के लिए उसे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया। उसने यह भी तर्क दिया कि उसने 2012 में उसे बिना किसी तुक या कारण के छोड़ दिया और अपनी बेटी से मिलने की भी जहमत नहीं उठाई। उसने यह भी कहा कि वह अपनी बेटी की देखभाल कर रही है और उचित शिक्षा भी प्रदान कर रही है। इसलिए बच्ची की कस्टडी पति को नहीं दी जा सकती है।

हाई कोर्ट में पति-पत्नी की दलील

फैमिली कोर्ट ने पति की अर्जी खारिज कर दी। इससे खिलाफ उन्होंने हाईकोर्ट का रुख किया। अपीलकर्ता/पति की ओर से पेश वकील ए. डी. कुलदीप ने कहा कि फैमिली कोर्ट को बच्चे के सर्वोपरि हित पर विचार करना चाहिए था और फैमिली कोर्ट इस बात की सराहना करने में विफल रहा है कि पति एक प्राकृतिक अभिभावक है और कस्टडी पाने का हकदार है। प्रतिवादी/पत्नी का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील अनिल सिंह राजपूत ने कहा कि बेटी अभी 12 साल की है और इस स्तर पर उसे मां की सहायता आवश्यकता है।

हाई कोर्ट का फैसला

बलराम बनाम सुषमा मामले में की गई टिप्पणियों को दोहराते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि 10 से 15 साल की उम्र में बालिका के यौवन, गोपनीयता और आवश्यक देखभाल से संबंधित मामले के एक जैविक पहलू को भी ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है। जीवन के इस मोड़ पर, लड़की को मां की विशेष देखभाल और ध्यान की आवश्यकता होती है। इस उम्र के दौरान लड़की में कुछ जैविक परिवर्तन होते हैं,जिनकी देखभाल पिता द्वारा नहीं की जा सकती है।

अदालत ने मामले को तय करने के लिए संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 और हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 को ध्यान में रखा। यह पाया गया कि एक हिंदू नाबालिग का प्राकृतिक संरक्षक पिता होता है और उसके बाद एक अविवाहित लड़की के मामले में मां प्राकृतिक संरक्षक होती है। बशर्ते कि एक नाबालिग की कस्टडी जिसने पांच साल की उम्र पूरी नहीं की है, आमतौर पर मां के पास रहती है।

खंडपीठ ने यह भी कहा कि यह अच्छी तरह से स्थापित है कि कस्टडी के मामले में, नाबालिग बच्चे का कल्याण सर्वोपरि है। इसके अलावा, गोवर्धन लाल एवं अन्य बनाम गजेंद्र कुमार, एआईआर 2002 राज 148 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कस्टडी के मामलों पर विचार करने के दौरान बच्चे के सामान्य आराम, संतोष, स्वास्थ्य, शिक्षा, बौद्धिक विकास और अनुकूलता को उचित महत्व दिया जाना चाहिए। इसलिए, यह पाया गया कि जब माता-पिता द्वारा की गई परस्पर विरोधी मांगों पर न्यायालय द्वारा विचार करते समय बच्चे का कल्याण प्रमुख कारक होता है तो दोनों मांगों को उचित ठहराया जाना चाहिए और कानूनी आधार पर कस्टडी का फैसला नहीं किया जा सकता है।

इसके अलावा कोर्ट ने कहा कि 1956 के अधिनियम की धारा 13 में प्रयुक्त ‘कल्याण’ शब्द का शाब्दिक अर्थ निकाला जाना चाहिए और इसे इसके व्यापक अर्थों में लिया जाना चाहिए। बच्चे के नैतिक और नैतिक कल्याण को न्यायालय के साथ-साथ उसकी शरीरिक भलाई के साथ भी तौला जाना चाहिए। इसलिए, उन विशेष कानूनों के प्रावधान जो माता-पिता या अभिभावकों के अधिकारों को नियंत्रित करते हैं, को ध्यान में रखा जा सकता है, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है जो ऐसे मामलों में उत्पन्न होने वाले न्याय के क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने से रोकने के लिए न्यायालय के रास्ते में खड़ा हो सकता है।

कोर्ट ने कहा कि इसलिए, यह माना गया कि अपीलकर्ता का यह तर्क कि पिता प्राकृतिक अभिभावक है, को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती है और बच्चे का कल्याण सर्वोपरि होगा। इसके अलावा, सबूतों से यह भी पता चला है कि उसके पास अपनी बेटी को पालने के लिए पर्याप्त आय नहीं है और जब वह काम पर जाता है तो उसकी बेटी की देखभाल करने के लिए घर में कोई नहीं होता है।

इसी तरह, यह साबित करने के लिए कोई पुख्ता सबूत नहीं पेश किया गया है कि उसकी पत्नी आपराधिक प्रवृत्ति की थी। हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि 12 साल की लड़की होने के नाते बच्चे को मां की देखभाल की आवश्यकता होगी, क्योंकि इस उम्र में कुछ बायोलॉजिकल चेंज होते हैं, जिनका ध्यान पिता द्वारा नहीं रखा जा सकता है। इसके साथ ही पति की अपील खारिज कर दी गई।

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