केरल हाई कोर्ट (Kerala High Court) सोमवार 26 सितंबर को को एक अहम आदेश दिया। हाई कोर्ट ने सोमवार को कथित रूप से अपमानजनक पति से अलग होने का दावा करने वाली एक महिला को उसकी 21 सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दे दी। जस्टिस वीजी अरुण (Justice VG Arun) ने कहा कि गर्भपात के लिए मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट (MTP Act) के तहत पति की सहमति जरूरी नहीं है।
क्या है पूरा मामला?
महिला के गर्भवती होने के बाद उसका पति से विवाद हुआ था और दोनों फिलहाल अलग रह रहे हैं। याचिकाकर्ता जब ग्रेजुएशन में थी तब उसने बस कंडक्टर के साथ अपने परिवार की मर्जी के खिलाफ शादी कर ली थी। हालांकि, शादी के बाद महिला ने आरोप लगाया कि उसके पति और उसकी मां ने दहेज की मांग के साथ उसके साथ खराब व्यवहार किया। महिला ने यह भी आरोप लगाया कि उसके पति ने अजन्मे बच्चे के पितृत्व पर सवाल उठाया और आर्थिक या भावनात्मक सहायता देने से इनकार कर दिया।
जब उसने अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने की मांग की, तो वह जिस स्थानीय क्लिनिक में गई, डॉक्टरों ने उसे मना कर दिया क्योंकि उसके पति से अलग होने/तलाक को साबित करने के लिए कोई कानूनी दस्तावेज नहीं थे। इसके बाद महिला ने अपने पति के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। इसके बाद जब वह वापस क्लिनिक गई, तो डॉक्टरों ने एक बार फिर उसके अनुरोध को मानने से इनकार कर दिया, जिससे उसे अदालत का दरवाजा खटखटाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
क्या है MTP एक्ट?
MTP एक्ट के नियमों के अनुसार, 20 से 24 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुति दी जाती है, अगर यह विधवा महिला या तलाक के दौरान होती है। होई कोर्ट ने सुनवाई के दौरान यह भी बताया कि भले ही गर्भवती महिला कानूनी रूप से तलाकशुदा या विधवा नहीं है। लेकिन उसके पति के साथ उसके बदले हुए समीकरण, उसके खिलाफ आपराधिक शिकायत, और तथ्य यह है कि पति उसके साथ किसी भी हालत में नहीं रहना चाहता है। कोर्ट ने कहा कि अधिनियम में एक महिला को गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए अपने पति की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है।
हाई कोर्ट
लीगल वेबसाइट बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, सिंगल जज जस्टिस वीजी अरुण ने कहा कि गर्भावस्था की समाप्ति के लिए मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट (MTP एक्ट) के तहत पति की सहमति आवश्यक नहीं है। कोर्ट ने कहा कि एमटीपी एक्ट के तहत बनाए गए नियमों में कहा गया है कि 20 और 24 सप्ताह के गर्भ के बीच समाप्ति की अनुमति देने वाले कारकों में से एक चल रही गर्भावस्था (विधवा या तलाक) के दौरान वैवाहिक स्थिति में बदलाव है।
भले ही तत्काल में गर्भवती महिला कानूनी रूप से तलाकशुदा या विधवा नहीं थी, कोर्ट ने अपने पति के साथ महिला के बदले हुए समीकरण को नोट किया, इस तथ्य से प्रदर्शित होता है कि उसने उसके खिलाफ एक आपराधिक शिकायत दर्ज की थी और इस तथ्य से कि पति ने कोई नहीं दिखाया उसके साथ बने रहने की इच्छा का झुकाव, उसके वैवाहिक जीवन में भारी बदलाव के बराबर है।
अदालत ने कहा कि जैसा कि सुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशासन में कहा गया है, एक महिला का प्रजनन पसंद करने का अधिकार भी उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक आयाम है, जैसा कि भारत के संविधान के आर्टिकल 21 के तहत समझा जाता है। किसी महिला के अपने प्रजनन विकल्प का प्रयोग करने या प्रजनन करने से परहेज करने के अधिकार पर कोई प्रतिबंध नहीं हो सकता है।
कोर्ट ने आगे कहा कि यदि उपरोक्त तरीके से व्याख्या और समझा जाए, तो गर्भवती महिला के वैवाहिक जीवन में भारी परिवर्तन उसकी वैवाहिक स्थिति में परिवर्तन के बराबर है। कोर्ट ने कहा कि नियम के अवलोकन से पता चलता है कि महिलाएं, जिनकी वैवाहिक स्थिति गर्भावस्था (विधवा या तलाक) के दौरान बदल गई है, भी शामिल हैं। निर्विवाद रूप से, गर्भावस्था के दौरान याचिकाकर्ता का वैवाहिक जीवन पूरी तरह से बदल गया है।
अदालत ने अपने आदेश में कहा कि प्रासंगिक रूप से, न्यायालय ने यह भी कहा कि अधिनियम में एक महिला को गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए अपने पति की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। ध्यान देने योग्य एक अन्य महत्वपूर्ण कारक यह है कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसमें महिला को गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए अपने पति की अनुमति प्राप्त करने की आवश्यकता हो। इसका कारण यह है कि यह वह महिला है जो गर्भावस्था और प्रसव के तनाव और तनाव को सहन करती है।
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