घरेलू हिंसा के आरोपित की मानसिक बीमारी को ध्यान में रखते हुए दिल्ली हाई कोर्ट (Delhi High Court) ने हाल ही में उसके खिलाफ निचली अदालत द्वारा गिरफ्तारी वारंट जारी करने के आदेश को रद कर दिया। शख्स बाइपोलर डिसऑर्डर, जनरलाइज्ड एंग्जाइटी डिसऑर्डर और अवसाद से पीड़ित है। यह वारंट निचली अदालत द्वारा उस व्यक्ति की पत्नी द्वारा घरेलू हिंसा एक्ट के तहत उसे और उसकी नाबालिग बेटी को प्रति माह एक लाख रुपये से अधिक का गुजारा भत्ता देने के आदेश के संबंध में दायर एक निष्पादन याचिका में जारी किया गया था।
क्या है पूरा मामला?
लाइव लॉ के मुताबिक, डीवी एक्ट की धारा 23 के तहत एक आवेदन में एमएम कोर्ट ने याचिकाकर्ता को धारा 12 के तहत याचिका दायर करने की तारीख से अपनी पत्नी और उनकी नाबालिग बेटी को 1,15,000 रुपये प्रति माह का भुगतान करने का निर्देश दिया था। इस आदेश को याचिकाकर्ता ने सत्र न्यायालय में चुनौती दी थी। बाद में याचिकाकर्ता की पत्नी ने मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, महिला कोर्ट के समक्ष निष्पादन याचिका दायर की।
22 अक्टूबर, 2022 को शख्स ने कार्यवाही में व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया था। उन्होंने कहा कि उन्हें मानसिक बीमारियों का इतिहास है और अदालत का ध्यान मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 की धारा 105 और 116 की ओर आकर्षित किया गया। मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने 28 अक्टूबर, 2022 को उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया। मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के आदेश के खिलाफ उनकी आपराधिक अपील को पहले अतिरिक्त सत्र जज ने खारिज कर दिया था।
याचिकाकर्ता का तर्क
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील ने तर्क दिया कि एएसजे ने एक प्रमाणित मनोचिकित्सक द्वारा जारी मानसिक बीमारी की रिपोर्ट को नजरअंदाज कर दिया था। उन्होंने अदालत को आगे बताया कि एएसजे ने उपरोक्त दस्तावेजों को नजरअंदाज करते हुए एक फैमिली फिजिशियन और स्त्री रोग विशेषज्ञ द्वारा जारी किए गए एकल मेडिकल दस्तावेज के आधार पर आदेश पारित किया, जिसे मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष छूट की मांग करने वाले आवेदन के साथ संलग्न किया गया था, जिसमें यह यह कहा गया था कि याचिकाकर्ता बार-बार उल्टी, दस्त, कमजोरी और चिंता के साथ बाइपोलर अफेक्टिव डिसऑर्डर से पीड़ित है।
दूसरी ओर, पत्नी की ओर से पेश वकील ने दलील दी कि छूट की याचिका उसके और उसकी नाबालिग बेटी के कानूनी अधिकार को खत्म करने के लिए ली गई है। दूसरी ओर, पत्नी की ओर से पेश वकील ने दलील दी कि छूट की याचिका उसके और उसकी नाबालिग बेटी के कानूनी अधिकार को खत्म करने के लिए ली गई है।
हाई कोर्ट का आदेश
लाइव लॉ के मुताबिक, जस्टिस अमित शर्मा ने कहा कि उक्त प्रावधान (धारा 105) की अनिवार्य प्रकृति सक्षम न्यायालय के पास कोई विवेकाधिकार नहीं छोड़ती है, यदि उसके समक्ष लंबित न्यायिक प्रक्रिया के दौरान ऐसा कोई दावा किया जाता है। धारा का अधिदेश यह है कि, ऐसे दावे के मामले में, सक्षम न्यायालय उसे संबंधित बोर्ड को संदर्भित करेगा जैसा कि उक्त धारा में दिया गया है। सक्षम न्यायालय उक्त धारा के तहत उचित निर्देश देने से पहले उक्त दावे पर पूर्व निर्णय नहीं दे सकता है।
अदालत ने आगे कहा कि मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट और अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश दोनों ने याचिकाकर्ता के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट के संबंध में एक्ट की धारा 105 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने से इनकार कर दिया था। मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम का विश्लेषण करते हुए, अदालत ने कहा कि मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 एक विशेष अधिनियम है और उक्त अधिनियम की धारा 120 के आधार पर इसे फिलहाल किसी भी अन्य कानून के संबंध में एक अधिभावी प्रभाव दिया गया है।
कोर्ट ने दस्तावेज पर किया भरोसा
कोर्ट ने कहा कि मानसिक बीमारी के दावे का समर्थन करने के लिए प्रदान किए गए दस्तावेज कॉसमॉस इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड बिहेवियरल साइंसेज, दिल्ली मनोचिकित्सा केंद्र के हैं। अदालत ने कहा कि उक्त रिपोर्ट के अवलोकन से पता चलता है कि यह 20 से 23 अगस्त, 2014 तक किए गए एक परीक्षण के आधार पर दिया गया था, और उक्त रिपोर्ट में दर्ज निष्कर्ष “बाइपोलर अफेक्टिव डिसऑर्डर, वर्तमान में मध्यम अवसादग्रस्तता प्रकरण” है। इसी तरह, दिसंबर, 2022 और जनवरी, 2023 में जारी फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट, गुरुग्राम की रिपोर्ट दर्शाती है कि याचिकाकर्ता बाइपोलर अफेक्टिव डिसऑर्डर से पीड़ित है।
जस्टिस शर्मा ने कहा कि एक्ट की धारा 105 किसी मानसिक बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को इंगित करने वाले दस्तावेज की कोई विशिष्ट आवश्यकता नहीं बताती है। अदालत ने आगे कहा कि एक्ट की धारा 105 उस व्यक्ति के पक्ष में अधिकार बनाती है जो अधिनियम की धारा 2(s) के तहत परिभाषित मानसिक बीमारी से पीड़ित होने का दावा करता है। प्रतिवादी की इस दलील को खारिज करते हुए कि उसने पार्टियों के समक्ष लंबित किसी अन्य पूर्व कार्यवाही में अपनी मानसिक बीमारी का मुद्दा नहीं उठाया।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि उक्त एक्ट की धारा 3(5) में कहा गया है कि किसी व्यक्ति की मानसिक बीमारी का निर्धारण करने से यह नहीं माना जाएगा कि वह व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ है, जब तक कि उसे सक्षम न्यायालय द्वारा ऐसा घोषित नहीं किया गया हो। इस प्रकार, उक्त एक्ट की धारा 105 के संदर्भ में निर्धारण प्रतिवादी के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाल सकता है। इसके साथ ही गिरफ्तारी वारंट के आदेश और इसके खिलाफ दायर अपील को खारिज करने के आदेश को रद्द कर दिया गया।
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