केंद्र सरकार ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में दायर एक हलफनामे में कहा कि कानून बनाने का संप्रभु अधिकार संसद के पास है और कोई भी बाहरी प्राधिकार इसे कानून बनाने के लिए निर्देश नहीं दे सकता है।
केंद्र ने क्यों कही ये बात?
दरअसल, केंद्र सरकार ने यह दलील वरिष्ठ वकील अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर उन याचिकाओं के जवाब में दी है जिनमें सरकार को तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार, शादी की उम्र और गुजारा भत्ता आदि के लिए धर्म एवं जेंडर न्यूट्रल एकसमान कानून बनाने की खातिर निर्देश दिए जाने का अनुरोध किया गया है।
केंद्र का जवाब
केंद्र ने पिछले सप्ताह दायर एक हलफनामे में कहा कि कानून की एक तय स्थिति है और विभिन्न निर्णयों में कहा गया है कि हमारी संवैधानिक योजना के तहत, संसद को कानून बनाने के लिए संप्रभु शक्ति है और कोई भी बाहरी शक्ति या प्राधिकार किसी खास कानून के लिए निर्देश नहीं दे सकता है।
हलफनामे में कहा गया है कि यह लोगों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के निर्णय का नीतिगत मामला है और इस संबंध में अदालत द्वारा कोई निर्देश नहीं जारी किया जा सकता है। यह विधायिका पर है कि वह कोई कानून बनाए या नहीं बनाए।
न्यूज एजेंसी पीटीआई के मुताबिक इसके अलावा, आदेश में यह माना गया है कि जनहित याचिका (PIL) सिर्फ समाचार पत्रों की खबरों के आधार पर नहीं दायर की जानी चाहिए। उपाध्याय ने वकील अश्विनी कुमार दुबे के जरिए ऐसे कानूनों का अनुरोध करते हुए पांच अलग-अलग याचिकाएं दायर की हैं।
उपाध्याय ने अगस्त 2020 में भी संविधान और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों की भावना को ध्यान में रखते हुए सभी नागरिकों के लिए “तलाक के समान आधार” की मांग करते हुए जनहित याचिका दायर की थी। इसके अलावा उन्होंने एक और PIL दायर कर संविधान और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों की भावना के अनुसार सभी नागरिकों के लिए भरण-पोषण और गुजारा भत्ता के लिए एक समान आधार ‘जेंडर और धर्म-तटस्थ’ की मांग की थी।
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