सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने 29 मार्च को वकील अश्विनी उपाध्याय (Ashwini Upadhyay) द्वारा देश भर में तलाक, गोद लेने, संरक्षकता, उत्तराधिकार/विरासत, और भरण पोषण से संबंधित मामलों में जेंडर न्यूट्रल और धर्म न्यूट्रल कानूनों (Gender Neutral and Religion Neutral) की मांग करने वाली जनहित याचिकाओं (PIL) पर विचार करने से इनकार कर दिया।
क्या है पूरा मामला?
लीगल खबरों की वेबसाइट लाइव लॉ के मुताबिक, चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस जेबी पारदीवाला की बेंच ने कहा कि मामले लेजिस्लेटिव डोमेन से संबंधित हैं और सुप्रीम कोर्ट संसद को कानून बनाने के लिए परमादेश (Mandamus) जारी नहीं कर सकता। सुविधा के लिए याचिकाओं के ग्रुप को चार कैटेगरी में विभाजित किया गया था।
भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि उन्होंने पहले ही प्रस्तुत कर दिया है कि सिद्धांत रूप में एक समान नागरिक संहिता आदर्श है। हालांकि, उन्होंने कहा कि मामला विधायी दायरे में आता है। उन्होंने कहा कि सरकार चिंतित है। लेकिन यह (समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन) इस तरह के रिट में नहीं हो सकता।
CJI चंद्रचूड़ ने आदेश लिखवाते हुए कहा कि सॉलिसिटर जनरल ने प्रस्तुत किया है कि जबकि भारत सरकार, नीति के मामले में समान कानून का समर्थन करती है। जहां तक मामलों के इस बैच का संबंध है, यह उनका निवेदन है कि इस तरह का हस्तक्षेप केवल विधायी प्रक्रिया के माध्यम से हो सकता है। दलीलों और प्रस्तुतियों के एक सुविचारित दृष्टिकोण पर हम आर्टिकल 32 के तहत याचिकाओं पर विचार करने के इच्छुक नहीं हैं। इन कार्यवाहियों में राहत प्रदान करने के लिए कानून के अधिनियमन के लिए एक दिशा की आवश्यकता होगी। यह विशेष रूप से विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आता है। यह एक सुस्थापित स्थिति है कि कानून बनाने के लिए विधायिका को परमादेश जारी नहीं किया जा सकता।
इस मुद्दे पर एक रिपोर्ट बनाने के लिए विधि आयोग को निर्देश देने के संबंध में प्रार्थना के संबंध में अदालत ने कहा कि उसे अनुरोध पर विचार करने का कोई कारण नहीं मिला क्योंकि अंततः ऐसी रिपोर्ट कानून के अधिनियमन की सहायता में होनी चाहिए जो कानून के दायरे में आती है। तदनुसार याचिकाओं का निस्तारण किया गया। कोर्ट ने “तलाक-ए-हसन” की प्रथा को चुनौती देने वाली याचिकाओं को इस बैच से अलग विचार के लिए अलग कर दिया।
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