रवि मलीमठ और नारायण सिंह धनिक की डिवीजन बेंच (Division Bench of Ravi Malimath and Narayan Singh Dhanik) ने प्रिंसिपल जज फैमिली कोर्ट के आदेश के खिलाफ अलग रह रही पत्नी द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया, जिसने शादी को भंग करके वादी पति के पक्ष में फैसला सुनाया था। यह मामला सितंबर 2020 का है।
क्या है पूरा मामला?
राजेश गौर (वादी-प्रतिवादी) की शादी मई 1999 में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार एक समारोह में अनीता गौर (प्रतिवादी-अपीलकर्ता) के साथ हुई थी। शादी के बाद वे मुंबई चले गए जहां वह व्यक्ति अपना व्यवसाय चला रहा था। दंपति के दो बच्चे हैं। जून 2014 में, पति ने पत्नी के खिलाफ हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 के तहत क्रूरता के आधार पर तलाक की डिक्री की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया।
पति का आरोप
शख्स ने आरोप लगाया कि पांच साल से उसकी पत्नी के व्यवहार में अचानक बदलाव आया और घर से कीमती सामान जैसे आभूषण, नकदी आदि गायब हो गया। इसके अलावा, उसने आरोप लगाया कि उसके 2-3 साल बाद, उसे बदमाशों के फोन आने लगेकि या तो पैसे लौटा दो, नहीं तो उसका अपहरण कर लिया जाएगा। पूछताछ करने पर पत्नी ने स्वीकार किया कि उसने 10 फीसदी ब्याज पर पैसा उधार लिया था और उसने उधार पर गहने और कपड़े भी खरीदे थे।
अपहरण और अपने फ्लैट पर कब्जा करने की लगातार धमकी मिलने के बाद, प्रतिवादी-अपीलकर्ता ने अपने जीवन और स्वतंत्रता के डर से अदालत का दरवाजा खटखटाने का फैसला किया। गांव में एक पंचायत (सामुदायिक सुनवाई) भी हुई जिसमें प्रतिवादी-अपीलकर्ता ने लिखित में अपनी गलती स्वीकार की, लेकिन उसके बाद भी कई मौकों पर दोनों के बीच झगड़े आम हो गए। जब पति के लिए महिला के साथ रहना असंभव हो गया, तो उसने तलाक के लिए अदालत जाने का फैसला किया।
पत्नी का बचाव
हालांकि, पत्नी ने अदालत में अपने लिखित बयान में पति द्वारा लगाए गए सभी आरोपों से इनकार किया। हालांकि उसने घर के खर्च और स्कूल की फीस के भुगतान आदि के लिए 10,00,000 रुपये (10 लाख रुपये) की उधारी रकम लेने की बात स्वीकार की। उसने यह भी कहा कि उसे पैसों के लिए लगातार परेशान किया जा रहा था और उसने महिला सेल में शिकायत भी की थी। इसके बाद, उस व्यक्ति के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 494 के तहत मामला दर्ज किया गया था।
कोर्ट की टिप्पणियां
सबूतों की जांच करने के बाद, फैमिली कोर्ट ने मुकदमा दायर करने के लिए बताए गए कारणों की पुष्टि करते हुए व्यक्ति को तलाक दे दिया। अदालत ने यह भी सहमति व्यक्त की कि पति द्वारा अपनी पत्नी के खिलाफ कथित कृत्य क्रूरता तलाक के लिए आधार की श्रेणी में आने के योग्य हैं।
जब महिला ने फैमिली कोर्ट के आदेश के खिलाफ उत्तराखंड हाईकोर्ट में अपील की तो कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए उसे खारिज कर दिया। अदालत ने स्पष्ट किया कि “क्रूरता” शब्द को अधिनियम के तहत परिभाषित नहीं किया गया था और यह शारीरिक या मानसिक हो सकता है।
होई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों का जिक्र करते हुए कहा कि मानसिक क्रूरता को प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा स्थापित नहीं किया जा सकता है और यह आवश्यक रूप से मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से निष्कर्ष निकालने का विषय है।
राज तलरेजा बनाम कविता तलरेजा, (2017) 14 एससीसी 194 के एक अन्य मामले का हवाला देते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि क्रूरता को कभी भी सटीकता से परिभाषित नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि वादी-प्रतिवादी उन आरोपों को साबित करने में विफल रहा जो उसने वादी-प्रतिवादी के खिलाफ लगाए थे।
कोर्ट ने आखिरी में निष्कर्ष निकाला कि ये सभी कार्य और आचरण हमारे विचार में क्रूरता का गठन करते हैं। इसके अलावा, जैसा कि स्पष्ट है, यह प्रतिवादी-अपीलकर्ता की ओर से क्रूरता का एक अकेला उदाहरण नहीं था। प्रतिवादी-अपीलकर्ता अपने पति के साथ बार-बार क्रूरता और दुर्व्यवहार के कृत्यों में लिप्त थी।
Read Order | Word Cruelty Can Be Physical Or Mental; High Court Grants Divorce To Husband
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